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The five senses and the six types of bodies, starting with the earth body, are called 'jiva' due to the intermingling of the eternal jiva and pudgala, based on practical usage and giving priority to the jiva. However, in terms of definitive understanding, these senses and bodies are not jivas because they lack the characteristic of consciousness, which is the defining feature of a jiva. The knowledge that shines forth in these senses and bodies, in the form of self-awareness and awareness of others, is what is considered the jiva, due to its subtle non-duality with the qualities and the qualified.
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत य इमे एकेन्द्रियादयः पृथिवीकायिकादयश्चानादिजीवपुद्गलपरस्परावगाहमवलोक्य व्यवहारनयेन जीवप्राधान्याज्जीवा इति प्रज्ञाप्यते । निश्चयनयेन तेषु स्पर्शनादीन्द्रियाणि पृथिव्यादयश्च काया: जीवलक्षणभूतचैतन्यस्वभावाभावान्न जीवा भवंतीति । तेष्वेव यत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनो; कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति ।। १२१।। ___ अन्वयार्थ-( न हि इन्द्रियाणि जीवाः ) इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं और ( षट्प्रकारा: प्रज्ञप्ता: कायाः पुनः ) छह प्रकारको शास्त्रोक्त कायें भी जीव नहीं हैं, ( तेषु ) उनमें ( यद् ज्ञानं भवति ) जो ज्ञान है ( तत् जीवः ) वह जीव है ( इत च प्ररूपयन्ति ) ऐसी ( ज्ञानी ) प्ररूपणा करते टीका-यह, व्यवहारजीवत्वके एकान्तकी प्रतिपत्तिका मान्यता का ] खंडन है। यह जो एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि 'जीव' कहे जाते हैं वे अनादि जीवपुद्गलका परस्पर अवगाह देखकर व्यवहारनयसे जीवके प्राधान्य द्वारा ( जीवको मुख्यता देकर ) 'जीव' कहे जाते हैं। निश्चयनयसे उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी आदि कायें, जीव के लक्षणभूत चैतन्यस्वभावके अभावके कारण, जीव नहीं है, उन्हीं में जो स्वपरकी ज्ञप्तिरूपसे प्रकाशित ज्ञान है वही, गुण-गुणीके कथंचित् अभेदके कारण, जीवरूपसे प्ररूपित किया जाता है ।।१२१।। सं० ता०- अथेन्द्रियाणि पृथिव्यादिकायाश्च निश्चयेन जीवस्वरूपं न भवंतीति प्रज्ञापर्यातइन्द्रियाणि जीवा न भवन्ति । न केवलमिन्द्रियाणि | पृथिव्यादिकाया: षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः य परमागमे तेपि । तर्हि किं जीव: ? यद्भवति तेषु मध्ये ज्ञानं जीव इति तत्प्ररूपयन्तीति । तद्यथाअनुपचरितासद्धृतव्यवहारेण स्पर्शनादिद्रव्येद्रियाणि तथैवाशुद्धनिश्चयेन लब्ध्युपयोगरूपाणि भावेन्द्रियाणि यद्यपि जीवा भण्यंते तथैव व्यवहारेण पृथिव्यादिषटकायाश्च तथापि शुद्धनिश्चयेन यदतीन्द्रियममृत केवलज्ञानांतर्भूतमनंतसुखादिगुणकदंबकं स जीव इति सूत्रतात्पर्यम् ।।१२१।। हिंदी ता०-उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पाँचों इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी आदि छः काय निश्चय नयसे जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा प्रगट करते हैं अन्वय सहित सामान्यार्थ-(इन्द्रियाणि ) पाँच इन्द्रियाँ ( पुण) तथा ( छप्पयार ) छ: प्रकारके [ काया ] काय [हि ] निश्चयनयसे [ जीवा ] जीव ( ण) नहीं [ पण्णत्ता] कहे गए हैं । [ तेसु] उन इंद्रियों तथा कायोंमें [जं णाणं] जो ज्ञान [ हवदि ] है [तं] उसको [जीवोत्तिय ] जीव ऐसा [परूवंति ] कहते हैं। विशेषार्थ-यद्यपि अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे स्पर्शन आदि पाँच द्रव्य इन्द्रियोंको तथा अशुद्ध निश्चयनयसे लब्धि तथा उपयोगरूप भावइन्द्रियोंको जीव कहते हैं तैसे ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रसकायोंको व्यवहारनय से जीव कहते हैं तथापि
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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