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## Description of the Six Substances and Five Astikayas **In the regions of transformed living beings, the Dharma-astikaya is like the supreme bliss, the taste of nectar, the perfect harmony, and the pervading presence of the Siddhas in the Siddha-kshetra, like water in a full pot, or like oil in sesame seeds. It is continuous, without any gaps between regions, and it is not scattered like a group of meditating monks in a deserted forest or like a crowd of people in a city. It is vast and boundless like the sky in the regions of the Abhyavi-jiva, and it is not limited like the regions of the Kevali-jiva, which are like the expanse of cloth or other objects. ** **Furthermore, what is its special characteristic? The Sutra states that it is a single, undivided region, but due to its nature, it is considered to be as vast as the number of regions in the Lokakasha, as indicated by the term "Asankhya" (innumerable).**
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________________ षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन परिणतजीवप्रदेशेषु परमानंदैकलक्षणसुखरसास्वादसमरसीभाववत् सिद्धक्षेत्रे सिद्धराशिवत् पूर्णघटे जलवत् तिलेषु तैलवद्वा स्पृष्टः परस्परप्रदेशव्यवधानहितत्वेन निरंतरः न च निर्जनप्रदेशे भावितात्ममुनिसमूहवनगरे जनचववद्वा सांतरः, पिहुलं-अभव्यजीवप्रदेशेषु मिथ्यात्वरागादिवल्लोके नभोवद्वा पृथुलोऽनाद्यनंतरूपेण स्वभावविस्तीर्णः न च केवलिसमुद्धाते जीवप्रदेशवल्लोके वस्त्रादिप्रदेशविस्तारवद्वा पुनरिंदानी विस्तीर्णः । पुनरपि किंविशिष्टः । असंखादियपदेस-निश्चयेनाखंडैकप्रदेशोपि सद्भूतव्यवहारेण लोकाकाशप्रमितासंख्यातप्रदेश इति सूत्रार्थः ।।८३।। हिंदी ता०-उत्थानिका-अथानन्तर अनन्तकेवलज्ञानादिरूप उपादेयभूत शुद्ध जीवास्तिकायसे भिन्न त्यागने योग्य धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकायके अधिकारमें सात गाथाओंतक कथन है । इन सात गाथाओंके मध्यमें धर्मास्तिकायके कथनकी मुख्यातासे 'धम्मस्थिकायमरसं' इत्यादि पाठक्रमसे गाथाएँ तीन हैं। फिर अधर्मास्तिकायके स्वरूपके निरूपणकी मुख्यतासे 'जह हवदि' इत्यादि गाथा सूत्र एक है। फिर धर्म अधर्म दोनोंके समर्थनकी मुख्यतासे उनका अस्तित्व न माननेसे जो दोष होंगे उनके कहनेकी मुख्यतासे 'जादो अलोग' इत्यादि पाठक्रमसे गाथाएँ तीन हैं इस तरह सात गाथाओंसे तीन स्थलोंके द्वारा धर्म अधर्मास्तिकायके व्याख्यानमें समुदायपातनिका है। पहले धर्मास्तिकायके स्वरूपको कहते हैं अन्वयसहित सामान्यार्थ:-(धम्मत्थिकायम् ) धर्मास्तिकाय ( अरसं) पांचरससे रहित है ( अवण्णगंधं ) पांचवर्ण और दो गंधसे रहित है ( असद्दम् ) शब्द रहित है ( अप्फासं) आठ स्पर्श रहित है ( लोगागाढं) लोकाकाशमें व्यापक है ( पुटुं) सब प्रकार स्पर्श किये हुए है, प्रदेश खंडित नहीं है ( पिहुलं) फैला हुआ है व ( असंखादियपदेसं) असंख्यात प्रदेशों को रखनेवाला है। विशेषार्थ-यह धर्मास्तिकाय अमूर्तिक द्रव्य है। जैसे निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञानमें परिणमन करते हुए जीवके प्रदेशोंमें परमानंदमयी एक सुखरसका आस्वादमयी समतारस सर्व जगह स्पर्श करता है व जैसे सिद्धक्षेत्रमें सिद्धराशि सर्व क्षेत्रेमें स्पर्श किये हुए है व जैसे पूर्ण घटमें जल भरा होता है या जैसे तिलोंमें तैल होता है इसतरह यह धर्मास्तिकाय परस्पर अन्तरहित स्पर्शरूप है। जैसे किसी निर्जनवनमें आत्माकी भावना करनेवाले मुनिसमूह बैठे हों व जैसे किसी नगर में मनुष्योंका समूह ठहरा है इसतर तरह धर्मास्तिकाय अन्तरसहित नहीं है तथा जैसे अभव्य जीवके प्रदेशोंमें मिथ्यात्व रागादिभाव सदासे फैला हुआ है अथवा लोकमें आकाश फैला हुआ है। इस तरह यह धर्मास्तिकाय अनादिसे अनन्त कालतक अपने स्वभावसे ही लोकभरमें फैला हुआ है। जैसे जीवके प्रदेश
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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