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**Verse 38** Those who have attained the ability to perform the work of destroying and pacifying the minor obstacles to their efforts, primarily experience the "work" [karma-consciousness] mixed with experience. The other experiencer, i.e., the soul, who has attained infinite energy due to the destruction of all obstacles to effort, experiences the natural happiness-like knowledge, which is inseparable from itself, through the nature of the experiencer, due to the destruction of all obscuring karmic stains, the destruction of all knowledge-obscuring karmic stains, the full development of all powers, the elimination of the fruits of karma, and the attainment of complete fulfillment. ||38||
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________________ पंचास्तिकाय प्राभृत १३१ अनुभवसे मिश्रितरूपसे भी 'कार्य' [ कर्म चेतना ] को ही प्रधानत: चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने अल्प वोर्यान्तरायके क्षयोपशम कार्य करनेका सामर्थ्य प्राप्त किया हैं । अन्य चेतयिता अर्थात् आत्मा जो समस्त वीर्यान्तराय के क्षयसे अनन्त वीर्यको प्राप्त हैं, सकल मोहकलंक धुल जाने के तथा समस्त ज्ञानावरण के विनाश के कारण समस्त प्रभाव अत्यन्त विकसित हो जाने से चेतकस्वभाव द्वारा, कर्मफल निर्जरित हो जाने के और अत्यन्त कृतकृत्यपना हो जाने के कारण अपने से अभिन्न स्वाभाविक सुखरूप ज्ञान को ही चेतते ( अनुभव करते ) हैं ||३८|| संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा - ३८ अथ त्रिविधचेतनाव्याख्यानं प्रतिपादयति — 'कम्माणं फलमेको चेदगभावेण वेदयदि जीवरासी' निर्मलशुद्धात्मानुभूत्य भावोपार्जितप्रकृष्टतरमोहमलीमसेन चेतकभावेन प्रच्छादितसामर्थ्यः सत्रेको जीवराशिः कर्मफलं वेदयति, एको कज्जं तु-अथ पुनरेकस्तेनैव चेतकभावेनोपलब्धसामर्थ्येनेहा पूर्वकष्टानिष्टविकल्परूपं कर्म कार्य तु वेदयत्यनुभवति । गागमथमेको अथ पुनरेको जीवराशिस्तेनैव चेतकभावेन विशुद्धशुद्धात्मानुभूतिभावेन विनाशितकर्ममलकलंकेन केवलज्ञानमनुभवति । कतिसंख्योपेतेन तेन पूर्वोक्तचेतकभावेन । निविहेण कर्मफलकर्मकार्यज्ञानरूपेण त्रिविधेनेति ||३८|| हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा - ३८ उत्थानिका- आगे यह बताते हैं कि चेतना तीन प्रकारकी होती है अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( एक्को) एक ( जीवरासी) जीवोंका समुदाय ( कम्माणं फलं ) कर्मों के फलको ( तु एक्को) और एक जीवराशि ( कज्जं ) कार्यको ( अघ ) तथा ( एक्को) एक जीव राशि ( णाणं ) ज्ञानको ( चेदयदि ) वेदती है या अनुभव करती है । इस तरह (तिविहेण ) तीन तरहकी ( चेदगभावेण ) चेतनाके भावसे जीवोंके अनुभव होता है । विशेषार्थ - निर्मल शुद्ध आत्माकी अनुभूतिको न पाकर अशुद्ध भावोंसे बांधा जो गाढ मोहनीय कर्म उसके उदयसे आप्त जो अत्यन्त मलीन चेतना उसीसे जिनके आत्माकी शक्ति ढका रही है ऐसा एक जीवसमुदाय कर्मोंके फलोंको ही अनुभव करता है । दूसरी एक जीवराशि उसी ही मलीन चेतनासे कुछ शक्तिको पाकर इच्छापूर्वक इष्ट या अनिष्टके भेदरूप कर्म या कार्य का अनुभव करती है तथा एक जीव समुदाय विशुद्ध शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप भावनासे कर्मकलंकको नाश करते हुए अपने शुद्ध चेतनाके भावसे केवलज्ञानको अनुभव करता है । इस तरह यह चेतना तीन प्रकार की है- कर्मफल चेतना, कर्मचेतना तथा ज्ञानचेतना ।। ३८ ।।
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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