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VAIANASAKAALIKACILA ABRAZLAGATANA URA साता वेदनीय के उदय में इन्द्रिय जन्य सुख और असाता के उदय में दुःख होता है। उदाहरणार्थ मधु लिप्त तलवार को यदि कोई लालनी नारने लगे तो मधु का स्वाद क्षणभर सुखद प्रतीत होता है परन्तु तीक्ष्ण धार से जिह्वा कट जाने से कई दिनों पर्यन्त तीव्र दुःख वेदना सहन करना पड़ती है। यही दशा है इस कर्म के उदय फल की। लोभ-लालच त्यागो॥ २८ ॥ • चौथा मोहनीय का लक्षण
जैसे मदिरा पान से, सुधि बुधि नसहि जाय। तथा मोह के उदय से, निज हित कछु न लखाय ।। २९॥
अर्थ - आत्मा के सम्यग्दर्शन का घातक मोहनीय कर्म है। जिस प्रकार मदिरापान करने पर तीव्र नशा उत्पन्न होने से मनुष्य बेहोश हो जाता है। हिताहित विवेक नहीं रहता उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय में जीव मूढ़ हो जाता है उसे सेव्य-असेव्य का विवेक नहीं रहता। हिताहित विषय में विमूढ़ हो विपरीत क्रिया करता है। अर्थात् तत्त्वातत्त्व विचार शून्य होकर मिथ्यात्व का सेवन कर अनन्त संसारी हो जाता है। इसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ये दो भेद हैं। प्रथम मिथ्यात्वी बनाता है और दूसरे का उदय जीव रागी-द्वेषी बना क्षुभित करता है ।। २९॥ • पाँचवां आयु कर्म का स्वरूप
अपराधी नर को यथा, देत काठ में फांस । तथा जीव आयु उदय, करत चतुर गति वास ॥ ३० ॥
अर्थ - भव से भवान्तर में जीव को जिसके उदय से निवास स्थान-काल प्राप्त होता है उसे आयु कर्म कहते हैं। जिस प्रकार लोक में पापाचारादि अपराध करने पर जेल में पैरों में बेड़ी या खोड़ा डालकर यथाकाल के लिए 125ANARKA L ARI ARA ARARANANCHERASKUUTA
धर्मानन्द श्रावकाचार-१०५