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________________ RAwareatmemaanisusurasREATEGRASKETRACURREastars • दर्शनावरणीय का स्वरूप यथा सुगम नहीं होन दे, नृप दर्शन दरबान। तथा दर्शनावरण भी, देख न देत जीवान ॥ २७ ॥ अर्थ - आत्मा के दर्शन गुण का घातक कर्म दर्शनावरणी कहा जाता है। जिस प्रकार दीवान या द्वारपाल नृपति का दर्शन नहीं होने देता उसी प्रकार इस कर्म का आत्म दर्शन नहीं होने देता ।। २७॥ • तृतीय कर्म स्वरूप शहद लपेटी असि चखे, सुख कम दुख अति होय। तथा वेदनीय कर्म भी, जीवन सुख दुःख देय ।। २८॥ अर्थ - तृतीय वेदनीय कर्म के दो भेद हैं क्योंकि यह दोगला स्वभावी है सुख और दुःख देना । इनके नाम भी साता वेदनीय और असाता वेदनीय । २६. पडपडिहारसिमज्जा हलिचित्तकुलाल भंडयारीणं । जह एदेसि भावा तह विय कम्मा मुणेयव्वा ॥ गा. २१ कर्मकाण्ड ।। अर्थ - १. पट के समान ज्ञानावरण - जैसे देवता के मुख पर ढका वस्त्र देवता __ के ज्ञान को नहीं होने देता उसी प्रकार ज्ञानावरण ज्ञान गुण को ढंकता है। २. प्रतिहार - द्वारपाल के समान दर्शनावरण - जैसे द्वारपाल राजा को देखने से रोकता है वैसे ही यह कर्म - अन्तर्मुखचित्प्रकाश नहीं होने देता है। ३. असि - शहद लपेटी तलवार के समान वेदनीय कर्म - जो इन्द्रिय जन्य सुख दुःख का अनुभव करावे - अव्याबाध सुख का घात करे वह वेदनीय कर्म है इसका स्वभाव शहद लपेटी तलवार की धार के समान है जिसको चखने से कुछ सुख का अनुभव तो होता है पर जीभ के कट जाने से दुःख विशेष होता है । ४. मज्जा - मदिरा के समान मोहनीय कर्म । ५. बेड़ी के समान आयुकर्म । ६. चित्रकार के समान नाम कर्म । ७. कुम्भकार के समान गोत्रकर्म और भण्डारी के समान अन्तराय कर्म का स्वभाव जानना चाहिए ।। २६ ।। *25UstagU ANAIKTUBANARASTAS BARABARKEAJBURK धर्मानन्द प्रायकाचार-~१०४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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