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________________ HANGGANGENENTS ASAZANA MORE RELÈVES CERCALAGAS रोक कर रक्ख्ना जाता है उसी प्रकार आयुकर्म भी चारों गतियों में यथायोग्य किसी एक गति में अपनी स्थिति के अनुसार उतने काल को रोककर रखता है ॥ ३० ॥ • छठौं नामकर्म लक्षण चित्रकार जैसे लिखे, बहुविध चित्र अनूप । नामकर्म के उदय से जीव धरे बहुरूप ॥ ३१ ॥ अर्थ - सुयोग्य चतुर चित्रकार के समान अत्यन्त विशेष कलाकार है। यह शरीर रूपी स्वच्छ सीट (कागज) पर अनेकों अनोखे सुन्दर - असुन्दर, नाना आकार-प्रकार चित्र बनाता है। उदाहरण को हम एक वृक्ष लें। इसमें अनेकों अनगिनत पत्ते हैं, परन्तु सूक्ष्मता से विचार करें तो कोई भी दो पत्ते एक समान प्राप्त नहीं होते। इसी प्रकार अनन्तो मनुष्य तिर्यञ्च हैं क्या किसी के नाक, कान, नेत्र, हाथ, पैर, उंगली, पीठ, पेट आदि अवयव एक दूसरे के हूबहू समान दिखाई देते हैं ? नहीं । यह भेद करने वाला कौन ? नाम कर्म ही है। यह बहुत होशियार तो है ही चालाक भी कम नहीं है। तीक्ष्ण-पैनी दृष्टि का है तभी तो शुभ और अशुभ की पहिचान कर तदनुसार ही सुन्दर-असुन्दर, सौम्य, अशुभ अवयवों को गढता रहता है। किसी के दर्शनीय और किसी के अभद्र अवयव होते हैं । अतः सदैव शुभ कार्य करना चाहिए ॥ ३१ ॥ • सातवाँ गोत्रकर्म - ज्यों कुम्हार छोटे-बड़े, बर्तन लेय बनाय । गोत्र कर्म के उदय वस, जीव भी नीच ऊंच कुल पाय ॥ ३२ ॥ अर्थ संसार में देखा जाता है कुम्भकार अपनी इच्छानुसार छोटे-बड़े GALTETŐTEZETÉT CASABABASAHANAKAKABABAEACACHEAED धर्मानन्द श्राचकाचा १०६ -
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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