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________________ Susumukuu NaCuRAKKAtuciratu ARMUUTA कराकर आबाल वृद्ध जनों को तत्त्व समझाकर सन्मार्गारूढ़ करना इत्यादि कार्यों से जिन शासन की महिमा प्रकट होती है । महान उत्सवों, नृत्य-गान, जिन गुण स्तवनादि का श्रवण कर विधर्मी-मिथ्यादृष्टि भी आश्चर्य चकित हो जिनधर्म प्रशंसा करें और कहें वस्तुतः जिनधर्म ही सनातन, समीचीन, सच्चा धर्म है | कल्याणकारी है, प्राणीमात्र का हित करने वाला है। इस प्रकार की महिमा प्रकट कर प्रभावना अंग का पालन करना चाहिए। श्रावक ही नहीं मुनिराज भी धर्म रक्षणार्थ जिनशासन का प्रचार-प्रसार कर इस अंग कोधारण और पालन करते हैं। उदाहरणार्थ श्री मुनि श्री वज्रकुमारजी ने उर्बिलारानी का आकाशमार्ग से बुद्धदासी के रथ के पूर्व चलवाकर जिनधर्म का नजारा, चमत्कार दिखलाकर धर्म का डंका बजवाया था । फलतः समस्त प्रजा ने और साथ ही बुद्धदासी ने भी इस माहात्म्य को देखकर जैन धर्म स्वीकार किया। सम्यग्दर्शन रत्न प्राप्त किया। हमें भी इसी प्रकार वृहद् प्रभावना कर कलियुग को सतयुग बनाने में उद्यमशील होना चाहिए ॥ १५ ॥ • मूढ़ता का स्वरूप जब सत-असत विवेक बिन, धर्म कल्पना होय। लोक देव गुरू मूढ़ता, त्रिविध कहावे सोय ॥१६ ।। अर्थ - मूढ़ता का अर्थ है अज्ञान । अर्थात् मूर्खता पूर्वक व्यवहार । जब मनुष्य सत्य-असत्य का विचार न कर विवेकहीन होकर विरुद्ध श्रद्धान, विपरीत तत्त्व, देव, शास्त्र, गुरु की मान्यता कर लेता है। अर्थात् अदेव में देव कुगुरु में १५. आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः॥ ३० पु. सि. ।।। अर्थ - निज रत्नत्रय के तेज से सदा आत्म प्रभावना करना तथा दान, तय, जिनपूजा, विद्या (शास्त्रज्ञान) की वृद्धि द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करना प्रभावना अंग है। प्रभाव युक्त होना प्रभावना है।।१५।। RasurinarasiniketressesaauscussiatrenasamousinsakNASAKAR धानिद प्रानकार४९२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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