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________________ murgamayasikrisimaniaTRIPAYMereder aturesruster सद्गुरु, अधर्म में धर्म की कल्पना कर बैठता है। यही मूढ़ता है। मोक्षमार्ग रूप रत्नत्रय के आधार देव, शास्त्र एवं गुरु प्रधान हैं। इनका स्वरूप व लक्षण यथार्थ ज्ञात न कर यद्वा-तद्वा स्वीकार करने पर मिथ्यामार्ग, संसार परिभ्रमण का पथ बन जाता है। मूढ़ता के आधार तीन के विषय में विपरीत कल्पना व धारणा के कारण मूढ़ता के भी तीन भेद हो जाते हैं - १. देव मूढ़ता, २. गुरु मूढ़ता और ३. धर्म मूढ़ता या लोक मूढ़ता । इनका सच्चा स्वरूप ज्ञात करने को देव, शास्त्र, धर्म या आगम व गुम का लक्षण ज्ञात काना आवश्यक है। १. देव का स्वरूप - जिसमें १८ दोषों का अभाव हो - वे दोष हैं - १. क्षुधा-भूख, २. तृषा-प्यास, ३.वृद्धत्व, ४. रोग, ५. जन्म, ६. मरण, ७. भय, ८. विस्मय (आश्चर्य), ९. राम, ५०. द्वेष, ११. मोह, १२. निद्रा, १३. स्वेद (पसीना), १४. खेद, १५. चिन्ता, १६. अरति, १७, शोक, १८. खेद हैं । जो सर्वज्ञ, हितोपदेशी और वीतरागी होता है वही सच्चा देव कहला सकता है। इसके विपरीत जो उपर्युक्त दोषों से सहित हैं, पुत्र, कलत्र, अस्त्रशस्त्रादि से सहित रहने वाला कदाऽपि सच्चा देव होने योग्य नहीं हो सकता है । इनकी परीक्षा न करके मिथ्या देवों की वर की आशा से अर्थात् पुत्र, सम्पत्ति, वनिता, वैभवादिक की आकांक्षा से उपासना, पूजा करना देवमूढ़ता है। इससे मिथ्यात्व सेवन से अनन्त संसार की वृद्धि होती है अतः उभयलोक सुख के इच्छुकों को विवेक जागृत कर देवमूढ़ता का त्याग करना चाहिए। २. गुरु मूढ़ता - परिग्रहधारी, आरम्भ में संलग्न, हिंसा कर्म रत, विषयकषायों में प्रवर्तन करने वाले, जटाजूट धारी, भगवा वस्त्रधारी, मिथ्या धर्म प्रवर्तनादि में लगे हुए, अपने को गुरु मन्यमाना को गुरु मानकर उनकी सेवा, सुश्रूषा, पूजा, आदर-सत्कार करना गुरु मूढ़ता है। ___जो आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा रहित, वीतरागी दिगम्बर साधु ही सच्चे गुरु होते हैं। इसकी परीक्षा न कर पाखण्डियों को गुरु मानना मूढ़ता ही तो है। XANA NANANANANART tatuate ALINAREANUARI धर्मानन्द प्रापकाचार-९३
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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