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________________ SARAccesareenarainikriATRIYASARAMETASANATANAMA अंग के पालन में श्री विष्णुकुमार मुनिराज प्रसिद्ध हुए हैं, जिनके प्रभाव से ७०० मुनिराजों की प्राण रक्षा, धर्म रक्षा, धर्मीजनों की रक्षा हुई । तथा उसी निमित्त से आज भी उस दिन का स्मरण कर "रक्षाबन्धन' नाम से महोत्सव मनाते हैं। जन-जन में प्रेम-वात्सल्य की सरिता सतत प्रवाहित रहती है। प्रत्येक जिनधर्मावलमबी को इस अंग का निष्प्रमाद होकर पालन करना चाहिए ॥१४ ।। • आठवाँ प्रभावना अंग यथा शक्ति रुचि से करे, अहिंसा धर्म प्रचार । जिससे महत्त्व जिन शासन का, प्रकटे अपरम्पार ॥१५॥ अर्थ - जिनशासन में सर्वथा, सर्वत्र अंहिसा का ही प्राधान्य है। इसीलिए अहिंसा धर्म कहा है। इस धर्म का प्रचार करना, माहात्म्य प्रकट करना, जिनशासन का प्रचार है। इसको मन, वचन, कायाांदे नव कोट से यथाशक्ति करना प्रभावना अंग है। अन्यत्र आगम में विस्तार रूप से इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि प्रभावना दो प्रकार की है - आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से। अर्थात् आत्म प्रभावना और जिनशासन प्रभावना। कठोर तय, साधना, ध्यान, अध्ययन, तत्त्व चिन्तन, आत्मानुभूति द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रत्नत्रय की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए उसके प्रकाश से आत्मा की प्रभावना करना आभ्यन्तर प्रभावना है । तथा विद्या, बुद्धि, ऋद्धि, मंत्र, तंत्र, यंत्रादि द्वारा जिनधर्म, जिनशासन की प्रभावना करना बाह्य धर्म प्रभावना है। यथा जिनालय निर्माण, जिन प्रतिमा निर्माण, पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा, रथोत्सव, शास्त्र रचना, प्रवचन करना, अध्यापन १४. अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबंधने धर्मं । सर्वेष्वपि च सर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।। २९ पु. सि.॥ अर्थ - मोक्ष सुख रूपी लक्ष्मी को कारण भूत अहिंसामय धर्म में (रत्नत्रय धर्म में) और सब धर्मात्माओं में भी निरन्तर उत्कृष्ट नीति का होना वात्सल्य अंग है ।। १४ ।। REGISSEMississKANKETaaaaNIRMANAmaerancersixe धर्मानन्द प्रावनापार९१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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