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________________ VANZSARUNASATASANÄSURUNUNUNUNUNUNUTAKARARANATA का आधारभूत ज्ञानी पुरुष विद्वान कहलाने का अधिकारी होता है । अस्तु मुमुक्षु बन्धुओं का कर्त्तव्य है, वित्तैषणा का शमन करते हुए आत्म कल्याण की भावना से ज्ञानार्जन कर यथार्थ सिद्धान्तों को जीवन में उतारकर सही बुधजन बनने का प्रयत्न करें । अहिंसा धर्म, जिनधर्म, मानव धर्म के पुजारी, रक्षक बनकर मुक्तिमार्ग के अनुयायी बनें । यही यथार्थ पाण्डित्य है। नहीं तो कोरे पण्डा पुजारी रह जायेंगे ।। २५ ।। • आश्रमों के नाम ब्रह्मचर्याश्रम गृहस्थपुनि, वानप्रस्थ सन्यास। इनका सप्तम अंग में, श्री जिन किया प्रकाश ।। २६ ।। अर्थ - श्रावक धर्म की साधना करने पर ही गृहस्थाश्रम और यत्याश्रम की सिद्धि हो सकती है। हमारे करुणा सागर भगवन्तों, आचार्य परमेष्ठियों ने भव्यों के क्रमिक विकास के लिए अनन्त चतुष्टय प्राप्ति के प्रतीक स्वरूप चार आश्रमों का विधान किया है। इनमें सर्वप्रथम दयाधर्म रक्षक, आत्म विशुद्धि कारक ब्रह्मचर्याश्रम निर्दिष्ट किया है। मानव जीवन के उत्थान की बाल्यावस्था है, यहीं से कुमार, यौवन, प्रौढ़, वृद्ध अवस्थाएँ पुष्टि पाती हैं। पूर्वकाल में विद्यार्थी ऋषि-मुनियों का आश्रमों में निवास करते हुए निर्दोष अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हुए विद्यार्जन करते थे। उस काल में वे सांसारिक विषय-विकारी वातावरण से अति दूर; सरल और धर्म निष्ठ रहते थे। उन्हीं संस्कारों से पुष्ट जीवन उन्हीं संस्कारों से सुसंस्कृत जीवन यापन करते परिणामतः निश्छल, न्याय-नीति पूर्ण, पारस्परिक प्रेम-वात्सल्य, धर्म और धर्मात्माओं का समादर करते । अभिप्राय यह है कि गृहस्थी में रहकर भी ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिए । इन आश्रमों का क्रमशः लक्षण आगे कहते हैं। २. गृहस्थाश्रम, ३. वानप्रस्थआश्रम और ४, सन्यास आश्रम ॥ २६ ॥ SUTURANA Urara SARUNASANAGRAKATAN मनिन्द प्रापवावार-७४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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