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________________ stat tagasi AKTAUNURULUNUKAZATUTUNUNG • ब्रह्मचर्याश्रम का लक्षण व कर्त्तव्य प्रथमाश्रम में प्रविष्ट हो, श्रेष्ठ गुरु ढिंग बाल । उभयलोक विद्या पढ़े, ब्रह्मचर्य व्रत पाल ।। २७॥ अर्थ - जिनागम या जिन वाङ्मय बारह अंगों में निबद्ध है। उनमें सातवाँ अंग उपासकाध्ययन है। इसमें चारों प्रकार के आश्रमों का वर्णन है। यहाँ उसी का अंश लेकर प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम का लक्षण व कर्तव्य निर्दिष्ट किया है। जो बालक विद्याध्ययन करने को उत्तम, योग्य, सदाचारी गुरू के सानिध्य में विद्याध्ययन करता है। विद्यार्जन काल पर्यन्त अखण्ड, निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत पालन की प्रतिज्ञा कर ज्ञानार्जन प्रारम्भ करता है। वही विद्यार्थी इस ब्रह्मचर्याश्रम वाला कहलाता है। उभयलोक अर्थात् इस लोक और परलोक की सिद्धि करने वाले सम्यग्ज्ञान, प्राणीरक्षा, दयाधर्म एवं कामवासना से विरत, भोगैषणा का निग्रह करने वाला और सम्यक्त्व पूर्वक शुद्ध, निर्मल आचरण करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। इस काल में मर्यादा-समय-काल की सीमा लेकर विद्याध्ययन करना ब्रह्मचर्याश्रम है। इस काल में वह सात्विक, मित और सुपाच्य भोजन करता हुआ गुरु सानिध्य-आश्रमादि में ही निवास करता है और यथोचित, रुचि व अपनी कुल परम्परा की मर्यादानुसार अस्त्र, शस्त्र, शिल्प, धर्म, सिद्धान्त, दर्शन आदि विद्याओं का सम्यक् अध्ययन करता है। विशेष - “गृहस्थाश्रम का स्वरूप" ---.- .. .. - .... .. .. .-.-.-.-- --- २६. ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्चभिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जनानां सप्तमांगाद् विनिःसृतौ ॥ अर्थ - मनुष्य का जीवन ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चार भागों में विभक्त है ऐसा सातवें उपासकाध्ययनाङ्ग से उद्धरण प्राप्त होता है। MAKAMANAKAMAKHANDRAMMARNAMASTERNATAKAanana पनिदायकापार-७
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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