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________________ LACASTELLASZKICSI INDEREA KAT ASACICIBANACA जीवन में सतत् दुःख दैन्य, हीनता आदि बनी रहती है । जीवन जीना ही दुर्लभ हो जाता है। निर्मल, शील स्वभाव, सुख-शान्ति व निरापद जीवन यापन की कला है । हम प्रत्येक विषय के सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार करें। सर्वप्रथम घर क्या है, गृह किसे कहते हैं ? चारों ओर चूना-मिट्टी या पाषाणों से दीवालें खड़ी कर देना घर है, वह हमारा रक्षण करेगा, सुख-शान्ति प्रदान करेगा ? विशाल महल, अटारी चून लेना क्या घर है ? नीतिकार कहते हैं "बिन घरनी घर भूत का देस" अर्थात् सुलक्षणी सौभाग्यशीला, कलाकुशल, उभय कुल पंकज विकासिनी गृहणी ( पत्नि ) नहीं है तो वह घर यथार्थ गृह नहीं है । गृहणी रहने पर ही परिवार, कुटुम्बी सम्बन्धी रह सकेगें। यदि नारी सुशिक्षित, सदाचारिणी, पतिभक्ता, धर्मज्ञा, श्रावक धर्म पालक है तो उसका परिवार भी तदनुसार शिष्टाचारी होगा, क्योंकि माता ही प्रथम शिक्षिका कहलाती है। सबके अनुकूल रहने पर सर्व ही प्रसन्न सुखी व शान्ति पूर्वक रह सकेंगे। भू पर ही उन्हें स्वर्गीय सुख का अनुभव होगा। यदि कलहारी, कर्कशा, दुराचारिणी हुई तो समस्त संतति भी उसका ही आचरण कारिणी होगी और फलतः घर नरक का अनुभव कराने वाला होगा। कहा भी है - - जहाँ सुमति तहाँ सम्पद नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपद निदाना ।। अर्थात् परस्पर प्रेम, सौहार्द, अनुकूल आचरण करना गृहाचार है। इसके विपरीत चलना गृह विरुद्ध आचरण है। घर में फूट पड़े तो घर बरबाद हो जाता है । कहा जाता है "घर का भेदी लंका ढावे" तथा खेत में फूट फलै तो सब कोई खाय | घर में पड़े तो घर बह जाय || १ || अतएव अपने कुल परम्परानुसार शुद्धाचरण, शिष्टाचार का पालन करना चाहिए। प्राचीन रीति-रिवाज, रहनसहन के अनुसार नहीं चलना गृह विरुद्ध आचार होगा जिससे स्व- पर का अकल्याण होगा। ZASALAHARICÁZALAKASAUREAZAKAKASACHETSAGAZZEZUNUZUN धर्मानन्द श्रावकाचार ६७
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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