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SANALARARANATHA MWAMURUNUNAMARCALARARUNKARUNA • तीन दोष दुःखदायी
धर्मानन्द दूषक दोष त्रय, मिथ्यात्व, अन्याय अभक्ष । इनके सबही भेद को, तज बुध निजगुण रक्ष ।। ८ ।।
अर्थ - आचार्य, भव्य जीवों को सम्बोधन देते हुए कहते हैं कि आपके धर्मानन्द को मलिन करने वाले तीन दोष अति प्रबल हैं। प्रथम मिथ्यात्व है इसके उदय रहने पर दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मीय गुण विपरीत परिणमन करा जीव को अनन्त दुःखसागर में पटक देते हैं। इसका अहंकारी मंत्री अन्याय कुमार्ग पर ले जाकर विषयाटवी में जा उलझा देता है। फिर क्या ? दुराचार विवेक का हरण कर आसानी से भक्ष्याभक्ष्य विचार शून्य कर देता है। इस प्रकार चारों और अनेकों विपत्तियों-नरक-निंगोद का पात्र बन जाता है। सुखेच्छुओं को इन दस्युओं से अपनारक्षण का पाहिए। अदिन करें तमीज्यतमासे मुक्ति मिल सकेगी और सुख की प्राप्ति होगी ॥ ८ ॥ • उपर्युक्त दोषों के त्याग की आवश्यकता
जिमि बिन शोधित भूमि में उगत सुबीज न कोय। मिथ्यात्वादि त्याग बिन, आतम शद्ध न होय ॥ ९ ॥
-- - ... उपरभ-विरक्त होने को सम्यक चारित्र कहते हैं। तीनों के एकीकरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसा उकत सूत्र में बताया गया है। जो भव्य है वही मोक्षमार्ग को ग्रहण कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है इत्यादि विषय उक्त सूत्र में युक्ति और आगम पूर्वक प्रस्तुत किया है।
"युक्ति आगमानुसारिणी' - आगम का अनुकरण करने वाली तर्वणा को युक्ति कहते हैं।
आगम - आचार्य पराम्परा से आगत मूल सिद्धान्त को आगम कहते हैं। वीतरागी सर्वज्ञ की वाणी जो पूर्वापर विरोध रहित है, शुद्ध है उसे आगम कहते हैं ।।७।। XANAKANUSRATURUARAUATAVARANKANUSZNANASA
तन्निनद घ्यावकाचार -५१