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________________ AURUSANTUAN MURATARE A titusi अर्थ - किसी भी कार्य को लिशि के लिए अन्य क्षेत्र, कालादि अनुकूल होना परमावश्यक है। जिस प्रकार बिना विचारे कालादि की अनुकूलता नहीं विचार कर यदि कंकरोली, पथरीली, कंटीली ऊसर भूमि में सुन्दर, पौष्टिक और योग्य भी बीज बोने पर वह वपित नहीं होता अपितु अपनी शक्ति, योग्यता को भी खो बैठता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अज्ञान, प्रमाद आदि से ग्रस्त मानव हृदय में आत्मशुद्धि का बीज स्वरूप सम्यग्दर्शनादि उत्पन्न नहीं होते। अतः अनादि मिथ्या, मोह-राग-द्वेषादि कषाय, विषयाभिलाषा, आशा. तृष्णा. लोभादि का त्याग आवश्यक है। क्या वस्त्र को धोये बिना टीनोपॉल चमक : ला सकता है ? नहीं, प्रथम उसे सर्फ, साबुन, जलादि से प्रक्षालित करना होता: है, तब वह टीनोपॉल में डुबकी लगा चमक पाता है। इसी प्रकार गुरूओं के सदुपदेश, जिनवाणी के अध्ययनादि साधनों से विषय-वासनादि मलिन भावों का परिहार होने पर आत्मीय, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि का प्रकटीकरण होता है। अस्तु, मिथ्यात्व, अज्ञान. असंयम रूपी कंकड़ों को निकालने पर ही मुक्ति रूपी बीजारोपण सफल होता है।। ९॥ • मिथ्यात्व का लक्षण सप्त तत्त्व षड् द्रव्य का जो उलटा श्रद्धान। जिस वश पर को निज गिने, सो मिथ्यात्व पहिचान ॥१०॥ अर्थ - यहाँ आचार्य श्री आत्मा के सर्वशक्तिमान शत्रु मिथ्यात्व का स्वरूप बतलाते हैं। जिनागम में तीर्थंकर (सर्वज्ञ) प्रणीत, जीव-अजीव, आम्रव, गंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व और जीव. पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य निरूपित हैं। इनका जैसा स्वरूप है उसे यथातथ्य न समझकर या श्रद्धान नहीं कर विपरीत समझना या श्रद्धान करना मिथ्यात्व है | सत्य ही है शराबादि पीकर या धतूरादि खाकर नशे में विवेक शून्य हो जाता है, वह शुक्ल को लाल, पीला, माता बहिन को विपरीत मानने NashakrasantinuxesaraswsundaureusettsANATAKi चन्तन्द नयापार४५२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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