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________________ SARARASE AU NAKARARA anakada KARANASASA • अतिथि संविभाग का लक्षण गुण संयम नहीं नाशि जो विन तिथी आय। उसे दान अशनादि दे संविभाजि नत काय ॥ २०॥ अर्थ - जिस मुनि के २८ मूलगुण और १२ प्रकार के संयम का नाश नहीं हुआ ऐसा मुनि बिना तिर्थी के श्रावक के घर उसे नया भक्ति पूर्वक आहार दान देना ही अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है।॥ २०॥ • इसके भेद - मुनि श्रावक व्रती अव्रती, सम्यग्दृष्टीसुपात्र । उत्तम मध्याधम अतिथी, कुपात्र अपात्र ॥ २१ ॥ अर्थ - जिस आत्मा में रत्नत्रय की प्रगटता हो चुकी है वही आत्मा पात्र कहा जाता है। पात्र के तीन भेद हैं। उत्तम पात्र, मध्यम पात्र, जघन्य पात्र । जो २०.१. ज्ञानादि सिद्धयर्थं तनु स्थित्याम्नाय यः स्वयम् । यत्नेनातति गेहं वा न तिथियेस्य सोऽतिथिः॥ अर्थ - जो अपने ज्ञानादि की वृद्धि करने अर्थात् आगमाध्ययन के लक्ष्य से, शरीर की स्थिति रखने के लिए, संयम साधनार्थ, जिन शासन की प्रभावनार्थ, षट् कम पालन के लिए जो आगमानुसार यत्नेन श्रावक के घर आहार को जाता है उसे अतिथि कहते हैं अथवा जिसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती उसे अतिथि कहते हैं। अतिथि सेवक कौन ? २. अतिथिः प्रोच्यते पात्र दर्शन व्रत संयुतम् । तस्मै दानं व्रतंतत्सादतिथि संविभागकः ।। अर्थ - दर्शन-सम्यग्दर्शन सम्पन्न अतिथि पात्र कहलाता है। जो श्रावक ऐसे अतिथियों को नियम से आहार दान प्रदान करता है, वह अतिथि संविभाग व्रत पालन करता है यही अतिथिसंविभाग व्रत कहा जाता है ।। २०।। ALASANAY KO RINGERARARAAN ZA RURALUCAR धर्माणपक्ष श्रावकाचार २६४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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