SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SAREERKERSATERESEReesacramSaratemeszsasuesamanasarsawaex • दिव्रत का लक्षण पूर्वादिकदशदिशन की गमन प्रतिज्ञालेय। प्रसिद्ध प्रसिद्ध हद बांधकर, दिग्वत नियम करेय ॥२॥ अर्थ - जीवन पर्यन्त सूक्ष्म पापों से बचने के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके इतने क्षेत्र के बाहर मैं नहीं जाऊँगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना। तथा जो स्थान सदा रहने वाले होते हैं और प्रसिद्ध होते हैं। उन्हीं स्थानों को वह अपनी मर्यादा का चिह्न बना लेता है। ऐसे चिह्न हर एक दिशा में प्रसिद्धप्रसिद्ध चीजों के बना लिये जाते हैं। जैसे - मैं उत्तर में काश्मीर तक, दक्षिण में मद्रास तथा पूर्व में कलकत्ता व पश्चिम में मुंबई तक ही जाऊँगा और न उससे आगे के स्थानादि किसी वस्तु से किसी प्रकार का संबंध ही रक्यूँगा इस प्रकार की दृढ़ प्रतिज्ञा करना ही दिग्व्रत है॥ २॥ • इसका फल जीतेजी कृत हद से बाहर कबहूँ न जाय । बाह्य क्षेत्र कृत पाप से दिग्दति अवश्य बचाय ॥३॥ अर्थ - दिग्व्रतधारी श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि मैंने जो दशों दिशाओं के क्षेत्रों की जो मर्यादा की है, उसके बाहर मैं कभी भी नहीं जाऊँगा । इस प्रकार उस सीमा के बाहर स्थूल व सूक्ष्म दोनों प्रकार के पापों से वह विरत हो जाता है ।। ३ ॥ २. दश दिक्ष्वपि संख्यानं कृत्वा यास्यामि नो वहिः । __ तिष्ठेत्यादित्यामृतेर्यक्षतत्स्यादिग्विरतिव्रतम् ।। अर्थ - दशों दिशाओं - चार दिशा-चार विदिशा उर्ध्व और अधो दिशाओं में गमनागमन, आने-जाने की यथेच्छ सीमा कर आजीवन उससे बाहर नहीं जाना दिखत कहलाता है।॥२॥ A NADA CAVRIANA A KATASARAUAKAR KARU धमिन्द श्रावकाचार-२४१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy