________________
; לן
2
10
L
C
m
૩
3
मृ
-..
ॐ
श
£
व
I
CACACGEL
KABAKALARAEACAÁCA
** अथ षष्ठाध्याय *
NANAKS
गुणव्रतों के नाम
पांच अणुव्रत गुणनि के, रक्षक बाढ़ समान । गुणव्रत त्रय दिगदेश पुनि, अनरथ दंड पिछान ॥ १॥
अर्थ - जिस प्रकार नगरों की रक्षा के लिए परकोटा का होना आवश्यक है। क्योंकि बिना परकोट के पर राष्ट्र से नगर की रक्षा अशक्य है। उसी प्रकार अहिंसादि अणुव्रतों की रक्षा के लिये सप्त शीलों के पालने की भी नितांत आवश्यकता है। बिना शीलों के पालन किये व्रतों का पालन निर्विघ्न एवं निर्दोष रीति से नहीं बन सकता सात शीलों में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत लिये गये हैं । उनमें दिव्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत ये तीन गुणवत होते हैं। तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगप्रमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। इन्हीं सातों को शीलव्रत भी कहते हैं। अर्थात् पांचों अणुव्रतों की हर प्रकार से रक्षा करना ही इनका स्वभाव है ॥ १ ॥
१. १. पंचाणु व्रत रक्षणार्थं पाल्यते शील सप्तकं । शस्यवत् क्षेत्र वृद्ध्यर्थं क्रियते महतीवृत्तिः ॥
२. गुणाय चोपकारायऽहिंसादीनां व्रतानितत् । गुण व्रतानि त्रींगप्याहुदिनकरत्यादि ।
अर्थ - श्रावकों के अहिंसादि पाँच अणुव्रत होते हैं। इनके धारक अणुव्रती इनको सुरक्षित, निरतिचार पालन करने के लिए सात शीलव्रतों का भी सम्यक् रीति से पालन करना चाहिए। ये चार शिक्षाव्रत और तीन दिवत कहलाते हैं, सातों शीलव्रत कहे जाते हैं। जिस प्रकार क्षेत्र में निष्पन्न फसल की रक्षार्थ उसके चारों ओर दृढ़ बाउंडरी - बाड़ लगाना आवश्यक है, उसी प्रकार अणुव्रतों को फलवान बनाने के लिए इनका पालन अनिवार्य है। २. जो अगुव्रतों के गुणों की वृद्धि कराने में सहायक होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं। ये संख्या में तीन हैं ॥ १ ॥
SAKAKASAKAGAZACAZACAYLEAEGEACABANALANANACKERYALAĶU
धर्मानन्द श्रायकाचार २४०