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________________ BAEZETUNCAAUAHALAENEANCHE SASTAASASAGANAGAER समाज में विधवा विवाह, विजातीय विवाह, अर्न्तजातीय विवाह, पुनर्विवाह जैसी कुरीतियाँ पनप रही हैं। जिस प्रकार नींव मजबूत हो तो उसके ऊपर कैसे भी भवन निर्माण करें, कितनी ही मंजिल बनवायें किन्तु वह टूटता - फूटता नहीं है उसी प्रकार अगर माता-पिता अपनी संतान को बचपन से ही धार्मिक संस्कार से सुसज्जित करने लगे तो वह बड़े होने पर इतने परिपक्व हो जायेगे कि उनके ऊपर आपत्तिविपत्तियाँ आने पर भी अपने धर्म को नहीं छोड़ेगें । अतः प्रत्येक श्रावक को चाहिये कि अपनी बहन-बेटियों को लौकिक शिक्षण के साथ-साथ धार्मिक शिक्षण पढ़ाने की व्यवस्था करें। जिससे वर्तमान में चल रही परिस्थितियों से उन्हें गुजरना न पड़े ॥ २० ॥ २०. व्युत्पादपरापर धर्मे पत्नि ग्राम परनयण, सा हि मुग्धा विरुद्धा वा धर्माद् भ्रंशयतेतरां । २. पत्युः स्त्रीणामुपेक्षैत्र वैरभावस्य कारणं । लोकद्वय हितं वाञ्च्छस्तदपेक्षेत तां सदा । ३. नित्यं पतिमनाभूय स्थातव्यं कुलस्त्रिया । श्री धर्मशर्म कीर्तिनां निलयोहि पतिव्रता । अर्थ पर धर्म परायणा स्त्री अन्य धर्म में परिणीत हो तो वह मुग्धा मूढ़ विरुद्धाचरण करती है अथवा धर्म से भ्रष्ट हो जाती है यह निश्चित है। - २. पति से उपेक्षित नारी- पत्नी वैरभाव शत्रुभाव को उत्पन्न करने की कारण बन जाती है। अतएव इह-परलोक में हित की वाञ्छा इच्छा करने वाला पति सदैव स्वपत्लि के साथ अपेक्षा भाव धारण करें। अभिप्राय यह है कि परिणीता पत्नी के साथ पति सदैव सद्व्यवहार करे अन्यथा वह कुमार्ग गामिनी होकर इसलोक में निन्दा और परलोक मे दुर्गति का कारण हो जायेगी। ३. कुलशीला स्त्रियों को सदैव अपने पति के अनुकूल रहकर गृहस्थ धर्म में रहना चाहिए। पतिव्रता नारियाँ धर्म, शान्ति, सुख और यश-प्रशंसा की घर- भाण्डार होती है। अर्थात् पतिव्रता सतत् अपने पति के अनुकूल आचरण कर सीता समान धर्म, सुख, शान्ति और कीर्तिलता समान शोभायमान होती हैं ॥ २० ॥ JABABABABABAKALÁCARAGAGAGAGAUACKCUCACÄCASAGAGAKA धर्मानि श्रावकाचार २२६ ·
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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