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________________ areasanceEARREResunasansaeraSRBAERESASResuscinamaesaadMAEE • चौर्य मे हिंसा लालच आदि कषाय वश, खल पर धन हर लेत। प्राण तुल्य धन हरण से, चोरी हिंसा हेत ॥१८॥ अर्थ - बिना दिये हुये किसी के धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह को लालच आदि कषाय भावों से अर्थात् प्रमाद पूर्वक दूसरे का द्रव्य हरण करने के भावों से भी कर लेना चोरी कहलाती है। वह चोरी भी हिंसा ही है। भावार्थ - जिस प्रकार हिंसा में प्राणियों के प्राणों का अपहरण किया जाता है उसी प्रकार चोरी में भी धन प्राणों का अपहरण किया जाता है। जैसे - जो पुरुष जिस पुरुष का रुपया पैसा गोधन सुवर्ण बर्तन आदि द्रव्य चुराता है वह उसके अंतरंग प्राणों का भी घात करता है, क्योंकि धनादि सम्पत्ति को बाह्यप्राण माने गये हैं और इसके चले जाने से मोहवश उसके आत्मा में तीव्रतम कष्ट होता है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाना, मन दुःखाना ये सभी हिंसा में गर्भित होता है। आचार्य उमास्वामी श्रावकाचार में चोरी करने से क्या फल मिलता है उसका निरूपण सविस्तार पूर्वक किया है - दास्य प्रेक्षत्व दारिद्यदौर्भाग्यादिफलं सुधीः । ज्ञात्वाचौर्यविचारज्ञो विमुचेन्मुक्ति लालसः ।। ३५७ ॥ उ. श्रा. अर्थ - दास होना, नृत्यकार होना, दरिद्री होना, भाग्यहीन होना आदि निंद्य फल चोरी करने से ही मिलता है अतः मोक्षाभिलाषी मुमुक्षु को सदा के लिए चोरी का त्याग कर देना चाहिये ।। १८ ॥ है। चूंकि इसमें प्रमाद का पुट रहता है इसलिए हिंसा का कारण होने से हिंसा भी है। जिसकी वस्तु ग्रहण की है उसे कष्ट, शोक, व्याकुलता अवश्य होती है। हिंसा और चोरी उभय पाप का कारण समझकर यह त्याग करने ही योग्य है ।। १७ ।। १८. अर्था नाम य एते प्राणा बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ १०३ ॥ पु. सि.... MasazesareATRANSasasaramstraaeeAREERACanaeraatmasa हालादिनः प्रायमचार-२२२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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