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________________ XAURANASAYANGKARACASA PRATARINA RUCANZYKATA • अचौर्य का लक्षण धरा-गिरा-भूला हुआ रक्खा पर धन जोय। चौर न आप न अन्य देय, अचौर्य अणुव्रत सोय ॥१७॥ अर्थ - किसी की रखी हुई, पड़ी हुई, भूली हुई वस्तु को बिना दिए ग्रहण न करना और न उठाकर दूसरों को देना अथवा जो क्रिया चोरी के नाम से प्रसिद्ध है जिसके लिए राजकीय व सामाजिक दण्ड व्यवस्था है ऐसा स्थूल चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। अचौर्याणुव्रत का धारी व्यक्ति कभी किसी को कम तोल-माप नहीं देता, न किसी से ज्यादा लेता है। व्यापारादि में कभी अच्छी या असली वस्तु में खोटी या नकली पदार्थ भी नहीं मिलाता । चोरी का माल न खरीदता है, न बेचता है, न चोरी करने के उपाय बताता है । अचौर्याणुव्रतधारी आयकर, विक्रय कर तथा अन्य राजकीय करों की भी चोरी नहीं करता । किसी की धरोहर नहीं हड़पता । बंटवारे के समय अपने भाईयों की धन-जमीन सम्पत्ति आदि को भी नहीं हड़पता ॥ १७ ॥ १७. १. निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं। न हरति यन्न च दत्ते तदकृश चौ-दुपारमणं । र. श्रा. चा. । २. अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्त योगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ १०२ ॥ पु. सि. अर्थ - यहाँ पर आचार्य देव अचौर्याणुव्रत का स्वरूप निरूपण कर रहे हैं। किसी रखे, गिरे, भूले हुए धनादि पदार्थों को उसकी आज्ञा बिना स्वयं ग्रहण नहीं करना और न उठाकर अन्य किसी को देना अचौर्माणुव्रत कहलाता है। कारण पर वस्तु मालिक की आज्ञा बिना लेना चोरी है। पाप भीरू इस प्रकार की वस्तु को ग्रहण नहीं करता। ३. जो प्रमाद योग से बिना दिये हुए परिग्रह-वस्तुओं को ग्रहण करता है, उसे चोर कहते हैं। बिना दिये धनादि पदार्थों को प्रमाद वश स्वीकार करना, लेना चोरी LAVRAESNARAR HACARANAN TATAARABURGERAKANA धमनिनद वाक्काचार -२२१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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