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________________ मानित. गाना - HarsasREATRINAMASUserisamRNARAANATKasutasursatserniersa • ब्रह्मचर्य का लक्षण पाप भीत परदार विंग, जाय न कहेअ न कोय। परत्रिय तजि संतोष निज, तुर्य अणुव्रत जोय ।। १९ ॥ अर्थ - धर्मानुकूल विवाहिता स्त्री स्वस्त्री कहलाती है, शेष सभी स्त्रियां परस्त्रियां होती हैं । स्वस्त्री में संतोष तथा परस्त्रियों में माता, बहिन, पुत्रीवत् भावना रखने को ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं। अन्य शब्दों में इसे स्थूल ब्रह्मचर्य, परस्त्री त्याग अथवा स्वदार संतोषव्रत भी कहते हैं। अथवा जो पुरुष पाप के भय से परस्त्री के पास न स्वयं जाता है, न दूसरों को जाने को कहता है और जो परस्त्री सेवन करने वाले है न उनकी अनुमोदना करते है अर्थात् जो पुरुष नवकोटि से परस्त्री का त्याग करता है एवं अपनी विवाहित स्त्री में संतोष रखता है वह ब्रह्मचर्याणुव्रत नामक चौथा अणुव्रत है। आचार्य उमास्वामी श्रावकाचार में ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण इस प्रकार बतलाया है - यन्मैथुनं स्मरोद्रेकात्तदब्रह्माति दुःखदम् । तदभावागतं सम्यग्ब्रह्मचर्याख्यमीरितम् ।। ३६६ ॥ उ. श्रा. अर्थ - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से वा कामवासना के उद्रेक से स्त्री पुरुषों के विशेष रमण करने की इच्छा को मैथुन कहते हैं इसी को अब्रह्म कहते हैं। यह अब्रह्म अति दुःख देने वाला है ऐसा जानकर इसका त्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत हैं। ...अर्थ - संसार में जितने भी धन-धान्य, रूपा-सुवर्णादि पदार्थ हैं, ये पुरूषो के बाह्य प्राण हैं। प्राण प्राणी का जीवन है प्राणों के रहने से जीवन है, इनका अभाव ही मरण है। इससे सिद्ध है कि जो किसी के धनादि का हरण करता है वह उस धनवान के प्राणों का ही हरण करता है। यह चोरी तो है ही हिंसा भी है, बुद्धिमान दूर से ही इसका परिहार करें।।१८। NAAMKARTAmavasasasean e KTATURamaksursarmanaarak ग्रामजिनद प्रावकाचार --२२३
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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