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* अथ पंचम अध्याय
• नैष्ठिक का कर्तव्य
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अणु-गुण-शिक्षा दृष्टि भी पाले निर अतिचार |
प्रतिमा प्रथम से चरम तक यह नैष्ठिक आचार ॥ १ ॥
अर्थ- जो सम्यग्दृष्टि जीव पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत अर्थात् इन बारह व्रतों का तथा पहली प्रतिमा से लेकर अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमा तक अपनी शक्ति को न छिपाता हुआ निचली दशा से क्रमपूर्वक उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है तथा अन्तिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किञ्चित् न्यून रह जाता है, ऐसे निरतिचार पूर्वक विवेक पूर्वक जीवन बिताने वाले को नैष्ठिक श्रावक कहते हैं ।
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भारद्वाज विद्वान् ने नैष्ठिक श्रावक का लक्षण कहा है
कलत्र रहितस्यात्र यस्य कालोऽतिवर्तते ।
कष्टेन मृत्युपर्यन्तो ब्रह्मचारी स नैष्ठिकः ॥
अर्थ - जिसका समय जीवन पर्यन्त अविवाहित- बिना विवाह के यापन होता है वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाता है। अर्थात् बाल ब्रह्मचारी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं ।
जैनाचार्यों ने ५ प्रकार के ब्रह्मचारियों का निरूपण किया है
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१. उपनय ब्रह्मचारी जो गणधर सूत्र को धारण कर अर्थात् यज्ञोपवीत धारण कर उपासकाध्ययन आदि शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें उपनय ब्रह्मचारी कहते हैं ।
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२. अवलम्ब ब्रह्मचारी जो क्षुल्लक का रूप धर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं ।
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निर्मानन्द श्रावकाचार २००