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________________ LAGACASACACAUACHUCHERERANGGAGASANASHUASHYASAYASA में प्ररूपित नियमों का चुन-चुनकर पालन करना, श्रेष्ठ प्रतिज्ञा रूपी रत्नों से गुंथी हुई माला को हृदय में धारण करना हमारा परम कर्तव्य है । यही इस अध्यायगत संदेश जानना जो श्रावकों के लिये परम पूज्य मुनि कुञ्जर सम्राट् आचार्य आदिसागर जी परम्परागत पट्ट शिष्य आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज द्वारा निरूपित है || ३६ ॥ • चतुर्थ अध्याय का सारांश पाक्षिक श्रावक की विधी, इस चौथे अध्याय । महावीर ने कुछ कही, शास्त्र कथित सुखदाय ॥ ३७ ॥ ३६. (क) व्रतानि पुण्याय भवन्ति लोके, न साति चाराणि निषेवितानि । सस्यानि किं क्वापि फलन्ति लोके, मलोपलिप्तानि कदाचनानि ॥ क्ष. चू. अर्थ- ग्रहीत व्रतों का पालन करना पुण्यार्जन को निमित्त होता है, परन्तु वे व्रत निरतिचार पालित होने चाहिए। दोष सहित पालन किये गये व्रतों का समुचित फल प्राप्त नहीं होता। जिस प्रकार धान की पैड़ी निकालकर उनकी जड़ में लगी मिट्टी धोये बिना बो दिया जाय तो क्या वे फलती हैं ? देखा है क्या कहीं किसी ने उनकी पौध जमते ? नहीं । अतः निरतिचार व्रतों का पालन करना चाहिए। (ख) न हि स्ववीर्य गुप्तानां भीतिः केसरिणामिव । अर्थ - जो मनीषी-पुरुषार्थी अपने में आत्मशक्ति-वीर्य से सम्पन्न हैं, अपनी स्वाधीनता से युक्त हैं उन्हें कहीं भी भय नहीं होता है। सर्वत्र निर्भय सिंह समान विचरण करता है । अर्थात् पराधीन वृत्ति कायरों का स्वभाव है। स्वाधीन पुरूषार्थी पराश्रित नहीं रहता, सतत स्वतंत्र निर्भय रहता है। ( ग ) " तत्त्वज्ञानं हि जागर्ति विदुषामार्ति संभवे । " अर्थ - तत्त्वचिन्तन शील सम्यग्ज्ञानी कौन है ? भयंकर रोग या कष्ट आ जाने पर जो उससे अभिभूत हो विमूढ़-विवेक नहीं होता उसे कर्माधीन समझ कर आकुलव्याकुल न होकर साम्यभाव से सहन करता है, विवेकहीन नहीं होता वही यथार्थ तत्त्वज्ञानी है || ३६ | 訳 EAESTUMUNUNUASANABAHAZALALAUREA धर्मानन्द श्रावकाचार १९८
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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