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________________ SasursuesasareReMangesasxeEUSLRSasartarsuarasdasexsa • निर्दयी-अज्ञानी की क्रिया - पाक्षिक क्रिया हीन नर, निर्दयी अज्ञ विचार । पशु सम वह विषयादि में, जन्म गमावे सार ॥ ३५ ॥ अर्थ - पाक्षिक क्रिया से भी जो नर हीन है, दया रहित धर्म के स्वरूप को समझने में अज्ञ है, धर्म की महिमा को नहीं जानता है वह पंचेन्द्रिय विषय भोगों में आसक्त पशु के समान मनुष्य जन्म को व्यर्थ गवा देता है॥ ३५ ॥ • आवश्यक उपदेश - आनन्द धर्म प्रकाश में, यदि बुध किया विहार । तुन त्रुन प्रतिहारल की, तो माला हिय धार ।। ३६॥ अर्थ - प्रस्तुत अध्याय में वर्णित श्रावक धर्म संबंधी विषय को जानकर परम सुखकारी धर्म के प्रकाश में गमन करना - चर्या बनाये रखना, श्रावक धर्म ३५. मैत्रादिभावनावृद्धं त्रस प्राणिवयोज्झनं, हिंसाम्यहं न धर्मादौ पक्षः स्यादिति तेषु च । २ आहार निद्रा भय मैथुनं च । सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिर्समानाः॥ अर्थ - मैत्री आदि चारों भावनाओं का धारक त्रस प्राणियों के वध का त्यागी होता है। वह भला “मैं इसे मारूं" इस प्रकार संकल्पी हिंसा को धर्म में किस प्रकार गर्भित करेगा ? नहीं। न ही उन बसों में ही हिंसाभाव रख सकता है। २. संज्ञाएँ चार हैं - १. आहार, २. निद्रा, ३. भय और ४. मैथुन (संभोग)। ये चारों ही मनुष्य और तिर्यञ्चों पशु-पक्षी आदि में समान रूप से पाई जाती है। अर्थात एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्राणी इन से ग्रस्त हैं। इनमें मनुष्य और पशुओं में क्या अन्तर है ? तो इस प्रश्न के समाधान में आचार्य श्री कहते हैं 'धर्मभावना' ही भेद दर्शक है। मनुष्य धर्म अहिंसा धर्म विशेष है जो पशुओं में नहीं है। स्पष्ट है जो धर्मयुक्त है वही मानव है, मनुष्य कहलाने का अधिकारी है शेष पशुवत् ही हैं ।। ३५ ।। NAKAMAGANAKABANATARINAANZARARAKAKARA धर्मानन्द श्रापकाचार -१९७
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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