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जो हिंसा के मूल कारण हैं उनका भी इसमें उल्लेख है।
___ मानवता के विधा तक भौतिक विज्ञान की चकाचौंध में पड़े हुए आज हम अहिंसा धर्म से दूर हटते चले जा रहे हैं। मातायें एबॉर्सन करवाकर-भ्रूण हत्या करते हुए भी नहीं चूकती है। अपने ही पुत्र का वध करना क्या भारतीय संस्कृति पर घोर कुठाराघात नहीं है ? भ्रूण हत्या महापाप है। जिस धरती पर दूध की गंगा बहती थी वहाँ कत्लखानों में करोड़ों गायों का वधकर आज रक्त की गंगा बह रही है, मांसाहार तेजी से बढ़ता जा रहा है, जैन भी मांस अंडा फैशन में खाने लगे हैं जो उनके लिये उभयलोक में दुःखदायी है। “अहिंसा परमो धर्मः" का उपदेश करने वाली जिनधर्म गत धर्म संहिता आज हमारे हृदय को झकझोरती है, जगाती है, प्रहरी की भौति सावधान कर रही है - जागो -२ निज को निहारो, सुख शान्ति के आकर होकर भी क्यों दुःखी हो ? कारण को पहचानों । दुःख की जननी हिंसा है और सुख की जननी अहिंसा । इस सत्य को परखो। जैन धर्म प्राणी मात्र का हितकारी है । अहिंसा ही इस धर्म का प्राण है। इसीलिए जिसमें हिंसा है उसका यह निषेध करता है, जैसे - रात्रि भोजन नहीं करना, पानी छान कर पीना, जमीकन्द-मूली, गाजर, आलू आदि अनन्त जीवों का पिंड है अत: उसे नहीं खाना । इत्यादि ही इसका संहिताचार है। नेल पॉलिश, लिपिस्टिक, शैम्पू, बेल्ट आदि चमड़े की चीजों का प्रयोग भी हिंसा जन्य पापाम्रव का कारण है। इनमें पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या होती है उनसे इनका निर्माण होता है अतः उनका त्याग कर हिंसा से बचना चाहिए। अनेकान्त दृष्टि से अहिंसा के स्वरूप समझकर आत्महित में लगना चाहिए यही इस तृतीय अध्याय का सार है।
• चतुर्थ अध्याय -
इस अध्याय में गृहस्थाश्रम गत दैनिक कर्तव्य, देव पूजा का स्वरूप, महत्त्वादि का वर्णन है। जिनबिम्ब भी पूजनीय है इस विषय को भी स्पष्ट किया गया है । देव, शास्त्र, गुरू का लक्षण, तपाचार-संयमाचार से लाभ, दान कास्वरूप, दाता, देय, पात्र आदि का विवेचन, बिना छने जल के सेवन से हानि, हिंस्य, हिंसा और हिंसक की समीचीन व्याख्या भी है। श्रावक के मूलगुण, रात्रि भोजन, मद्यपान आदि से हानि, यज्ञोपवीत की आवश्यकता आदि विषयों को भी स्पष्ट किया है।
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