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जिस प्रकार द्रव्य प्राणों की रक्षा हेतु हम प्रतिदिन भोजन जल आदि ग्रहण करते हैं उसी प्रकार भाव प्राण स्वरूप- रत्नत्रय धर्म की रक्षा हेतु षट् कर्मों का जो प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक क्रियायें हैं उन्हें अवश्य करना चाहिए। एक कार्य की सिद्धि हेतु अनेक कारणों की आवश्यकता होती है कोई उपादान कारण होता है कोई निमित्त कारण दोनों ही अपने -२ स्थान पर महत्वपूर्ण हैं । अतः देव पूजा आदि कार्यों की उपेक्षा न करते हुए उन्हें यथा समय यथाविधि प्रतिदिन करना चाहिए। उनमें भी पूजा और दान श्रावक के मुख्य कर्त्तव्य हैं। पूज्य कौन हैं ? पूजा का क्या अर्थ है इस संदर्भ में सच्चे देव, शास्त्र और गुरू का लक्षण भी इस अध्याय में बताया गया है। जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे ही सच्चे देव हैं। उनमें जो तीर्थंकर प्रकृति सहित हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं शेष सामान्य केवली कहलाते हैं। तीर्थंकरोति इति तीर्थंकरः । जिनकी वाणी के द्वारा संसार सिन्धु से, जीव तिर जाते हैं वे धर्म तीर्थ के कर्ता, तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थ शब्द का अर्थ घाट होता है। घाट के सहारे से व्यक्ति सरोवर के बाहर सरलता पूर्वक निकल आता है, इसी प्रकार सामान्य केवली या तीर्थंकर भी संसार पार करने में घाट के समान सहायक हैं। उनके द्वारा दिये गये ही उपदेश को शास्त्र जानना चाहिए। वीतरागी सर्वज्ञ की वाणी भी तीर्थभूत है। स्वाध्याय से भेद विज्ञान और अन्ततः केवलज्ञान भी प्रगट हो जाता है। कहा भी है
स्वाध्याय बिन होत नहीं, निजपर भेद विज्ञान । जैसे मुनिपद के बिना न हो केवलज्ञान ॥
जो वीतरागी अरहन्त द्वारा प्रतिपादित, पूर्वापर विरोध रहित संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित हो वही सच्चा शास्त्र है अन्य नहीं ।
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जो बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं, ज्ञान, ध्यान, तप में निरन्तर लीन रहते हैं, वे ही तारण तरण सच्चे गुरू हैं। गुरू उपासना भी देवपूजा की तरह दैनिक कार्य है -
कहा भी है -
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ज्ञानचारित्रयुक्तो यः गुरूर्धर्मोपदेशकः ।
निर्लोभः तारको भव्यान् स सेव्यः स्वहितैषिणः ॥ १ ॥
जो गुण मण्डित बुद्ध हैं, रत्नत्रय से शुद्ध ।
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