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"जिणवयणमोसहमिणं विसयसुह विरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सब्बदुक्खाणं । दर्शन प्राभृत १७ ।।
अर्थ - जिनवचन ही वह श्रेष्ठ औषधि है जो विषय सुख के विरेचन पूर्वक जन्म जरा मरण का दुःख हरकर समस्त दुःखों से छुड़ाती है। जो उस औषधि को यथाविधि स्वीकार करता है उसमें आश्चर्यकारी परिवर्तन देखा जाता है। तृष्णाओं की आँधी स्वयमेव शान्त हो जाती है। दुःख और अशान्ति का मूल जो मिथ्यात्व है उसका वमन हो जाने से उसे धीरे-धीरे स्वास्थ्य लाभ होने लगता है.। अब तक वह भ्रान्तिवश भोगों में सुखमान रहा था, उसकी दौड़ मात्र भोगों की ओर थी पर जिनवाणी द्वारा ज्ञानाञ्जन शलाका से दृष्टि जब खुल जाती है तब विपरीत मार्ग वह शीघ्र छोड़ देता है - बहिरात्मा से अन्तरात्मा बन जाता है - निज आत्म गुणों में अनुराग बढ़ता है, विषयभोग अब रूचिकर नहीं लगते हैं। रत्नत्रय स्वभावी निज आत्म स्वभाव में ही रमता है। जैसा कि प्रस्तुत ग्रन्थ में भी बताया गया है
सम्यग्दर्शनज्ञान युत, अहिंसामय चारित्र । श्रावक मुनि व्रत पालकर, करते स्वात्म पवित्र ॥ ३१ ॥ द्वि. अ.। मुहूर्त एक समकित रतन, पाकर यदि हो त्याग। मारीचि सम बहुभ्रमित भी, शिवतिय धरे सुहाग ।। ३२ ।। द्वि. अ.।
सम्यग्दर्शन सम्यक्झान पूर्वक अहिंसा धर्म का पालन करना चारित्र है वह चारित्र ही श्रेष्ठ धर्म है उसकी रक्षा हेतु श्रावक धर्म तथा मुनि धर्म को अर्थात् अणुव्रत और महाव्रतों को यथाशक्ति धारण करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के आठ अर, २५ दोषों का उल्लेख भी इस अध्याय में है क्योंकि कहावत है - "बिन जाने ते दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये। हेय क्या है ? उपादेय क्या है ? दोनों पक्षों को जानने से व्रतों में स्थिरता दृढ़ता आती है। पाठक गण दोनों को भली प्रकार जान सकें इस अभिप्रा को लेकर यहाँ उन सबका संक्षेप में वर्णन किया है। उनका पठन, चिन्तन-मनन कर आत्म उत्थान हेतु कठोर पुरूषार्थ करना चाहिए | इत्यले ।
• तृतीय अध्याय - इस अध्याय में हिंसा और अहिंसा तत्त्व का सुन्दर वर्णन है। प्रमाद और कषाय
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