SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ KANTERTREATMERERNASANAMATARATARANARASTERSARANAasa नहीं तो वह परिपक्व तप नहीं है 1 इत्यादि प्रकार तप की अनिवार्यता जानकर गृहस्थ को भी यथाशक्ति यथावसर योग्य तप करना चाहिए॥७॥ • दान से लाभ - आहारौषध अभययुत शास्त्र दान नित देय। जिससे सफल स्वजन्म हो,जग कीरति प्रकटेय ॥ ८॥ अर्थ - आहारदान, औषधदान, अभयदान और ज्ञानदान के भेद से दान के चार भेद हैं। दान से जग में भी भारी कीर्ति होती है तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति भी अतः विधिवत् दानकर अपने जन्म को सफल करना योग्य है। भावार्थ - दान श्रावक का मुख्य कर्तव्य और धर्म है ऐसा सभी ग्रन्थों में उल्लेख है। पर दान किसे कहते हैं उसका स्वरूप भी सर्वप्रथम (संदर्भवश) जानना चाहिए। तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्ध में दान की परिभाषा इस प्रकार मिलती है - "अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्" अनुग्रह की भावना से धनादि ७. “इच्छा निरोधस्तपः" इति तपसो सामान्य लक्षणं । विषयाकाञ्छा का निरोध - इच्छाओं को रोकना तप है। यह तप का सामान्य लक्षण तत्त्वार्थ सूत्र में मिलता है। तप के भेदों का कथन - बाह्य तप - "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्यासन काय क्लेशाः बाह्यं तपः ।।” तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय-९, सू. १९ अर्थ - बाह्य तप ६ प्रकार का है - १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्ति परिसंख्यान, ४. रस परित्याग, ५. विविक्त शय्यासन, ६. कायक्लेश। अन्तरग तप - प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । त. अ. ९, सू. २०॥ अर्थ - अन्तरङ्ग तप के ६ भेद हैं १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग, ६. ध्यान । RMERSEENERGREExesasaramsxesaszaRESTERIERSASREMEasa धमनि श्रावकाचार १६१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy