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________________ JASACHERYACHGASAKAS SALACASACASABASABABASASANA द्रव्यों का त्याग करना दान है। "स्वपरोपकारः अनुग्रहः " अनुग्रह का अर्थ है - स्व और पर दोनों का हित होना । "स्वोपकारः पुण्य संचयः " दान से दाता को सातिशय पुण्यार्जन होता है यह स्वोपकार है। " परोपकारः संवतस्य सम्यज्ञानादि वृद्धिसंग के म्यानादि की वृद्धि होना परोपकार है। सूत्र में प्रयुक्त 'स्व' शब्द धनपर्याय का वाचक है अर्थात् पात्र के अनुसार योग्य द्रव्य को ही देना दान है। दाता, पात्र, देय वस्तु आदि का भी आगम से विचार कर दान करना ही परम विवेक है। दान उत्तम क्वालिटी का साबुन है। जैसे साबुन लाकर कपड़ा धोने से पूरा मैल निकल जाता है उसी प्रकार सत्पात्र को दान देने से आरम्भादि पञ्चसूना से उपार्जित पाप भी धुल जाता है। श्रेयांस राजा ने उत्तम पात्र को आहार दान दिया था जिस के पुण्य फलस्वरूप उसी भव से मुक्ति को प्राप्त हुए । एक ग्वाले ने मुनिराज को शास्त्र दान किया जिससे दूसरे भव में विशिष्ट क्षयोपशम का धारी वह कुन्दकुन्द आचार्य बना । इत्यादि अनेक उदाहरण शास्त्र में उपलब्ध होते हैं। उन्हें जानकर निरन्तर आत्म हित में लगना चाहिए ॥ ८ ॥ ८. अभयाहार भैषज्यशास्त्र दाने हि यत्कृते । ऋषीणां जायते सौख्य गृही श्लाघ्यः कथं न सः ॥ अर्थ - ऋषि गणों के लिये दुःखापहारक सौख्यकारी अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान करने वाला गृहस्थ प्रशंसनीय क्यों न होगा ? अवश्य होगा। यहाँ गृहस्थ जीवन में दान की महिमा बताई गई है। और भी दान बिना गृहस्थ जीवन निष्फल है - सत्पात्रेषु यथाशक्तिः दानं देयं गृहस्थितैः । दानहीना भवेत् तेषां निष्फलैषा गृहस्थितिः ॥ अर्थ - गृहस्थों को सत्पात्रों के लिये यथाशक्ति यथा विधि दान देना चाहिए। दान हीन व्यक्ति का गृहस्थ कहलाना ही निष्फल है अर्थात् आगम में उसकी गृहस्थ संज्ञा ही नहीं है ॥ ८ ॥ KAUALINAKABABABABAYALDGALÍCARACASACÉNAKAKAZAKÁZKUN धर्मानन्द श्रावकाचार १६२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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