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________________ *PRANASANAKAA NARARAUREA CASANARARAAAAAAA ३. वैयावृत्ति - शरीर की क्रियाओं से तथा अन्य योग्य उपकरणों से पूज्य पुरूषों की उपासना करना, परिचर्या-सेवा करना वैयावृत्ति है। ____ तत्त्वार्थ राजवार्तिक ग्रन्थ के अनुसार - "गुणवत् दुखोपरिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैय्यावृत्यम्" रत्नत्रय गुणधारी पर कोई भी दुःख आने पर व्याधि रोगादि होने पर, परीषह आ जाने पर बिना किसी प्रत्युपकार की भावना से योग्य प्रकार उपद्रव को दूर करना वैय्यावृत्ति है। यदि किसी के पास बाह्य द्रव्य औषध भोजनादि न हो तो वह केवल अपने शरीर से भी वैयावृत्ति कर सकता है। जैसे - अपने हाथों से उनका कफ, नाक का मल-मूत्रादि को दूर कर उनके अनुकूल उनकी सेवा सुश्रूषा करना वैयावृत्ति है। जिससे तीर्थंकर जैसी पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है। ४. स्वाध्याय - सदा ज्ञानाराधना में तत्पर रहना स्वाध्याय है पहले उसका वर्णन किया है। ५. व्युत्सर्ग - परिमित काल के लिये शरीर से ममत्व छोड़कर आत्म स्वरूप में स्थिर होना कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग तप है। ६. ध्यान - मन में विकल्पों का प्रगट न होना, एकाग्रचित्त होना ध्यान है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के अनुसार चित्त विक्षेप त्यागो ध्यानं । मन का नियमन करने वाला होने से प्रायश्चित्त आदि को अभ्यन्तर तप जानना चाहिए । अन्य दर्शनों में कहीं भी आभ्यन्तर तप का व्याख्यान नहीं है इसलिये अन्य मतों से अप्राप्त होने के कारण भी प्रायश्चित्त आदिको अभ्यन्तर तप कहते हैं। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों ही तप उपादेय हैं - महिलाएँ तवे पर रोटी सेकती हैं, यदि वे एक तरफ से सेक दें, दूसरी तरफ से नहीं सेकें तो हम कहेंगे कि कच्ची रह गई। इसी प्रकार यदि केवल अन्तरङ्ग तप को महत्त्व दें, बाह्य को 140RANASAEGNASARANASARUBASARAB SAUDARAR KALANACA धमनिन्द श्रावकाचार-~१६०
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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