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________________ wzeKSASRIMARSANSAREERINARSRISMEEReadiasmaeREERSamamasRER श्री अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचार के अनुसार "तत्र मनसा सलोचो भाव पूजा पुरातनैः।" मन को अन्य ओर से हटाकर जिन भक्ति में लगाना उसे पुरातन पुरुषों ने भाव पूजा कही है। और भी__"व्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतःगुणानां यदनुध्यानं भाव पूजेय मुच्यते ॥ १४॥ जिनेन्द्र देव के व्यापक विशुद्ध गुणों का परम अनुराग से जो बार-बार चिन्तवन करना सो यह भावपूजा कही जाती है। संसार को जीतने वाले जिनेन्द्र प्रभु की दोनों ही प्रकार से पूजा करने वाले पुरुष को दोनों ही लोक में कोई भी श्रेष्ठ वस्तु पाना दुर्लभ नहीं है। पदुमनन्दी पंचविंशतिका ग्रन्थ में - जिनेन्द्र पूजा की अनिवार्यता दिखाते हुए आचार्य लिखते हैं - ''थे जिनन्द्रं न पश्यन्ति पूलन्ति स्तुवन्शिन । निष्फलं जीवितं तेषां, तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥ १५॥ (छ.अ.) प्रातरुत्थाय कर्त्तव्यं देवतागुरूदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ।। १६ ।। अर्थ - जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान् का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहस्थ जीवन को धिक्कार है ॥ १५ ॥ श्रावकों को प्रातः काल उठकर भक्ति से जिनेन्द्र देव तथा निर्ग्रन्थ गुरु का दर्शन और उनकी वन्दना करके धर्म श्रवण करना चाहिए तत्पश्चात् अन्य कार्यों को करना चाहिए। जिनपूजा का फल निर्जरा और मोक्ष है - भगवती आराधना ग्रन्थ के अनुसार "एया वि सा समत्था जिण भत्ती दुग्गइं णिवारेण । WUERRAN ARRUARA ARARANASASAKURAKURUKAN CABANA धर्मानन्द प्रायकाचार १५०
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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