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ABUSE BABASA KATAKANANASASABAKATAKARARAA
पुण्णवि य पूरेदु आसिद्धिः परं परसुहाणं ॥७४६ ।। बीएण बिणा सस्सं इच्छदि सो वासमन्भएण बिणा । आराधणमिच्छन्तो आराधणभत्तिमकरंतो॥७५० ।। वसुनन्दि श्रावकाचार, भावपाहुड़ में भी ऐसा ही उल्लेख है -
अर्थ - अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष प्राप्ति होने तक इससे इन्द्रपद, चक्रवर्ती पद, अहमिन्द्र पद और तीर्थकर पद के सुखों की प्राप्ति होती है। ७४६ ॥ आराधना रूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धि रूप फल चाहता है वह पुरूष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है अथवा मेघ के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा करता है।
भावपाहुड़ ग्रन्थ के अनुसारजिणवरचरणंबुरूहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मबेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ॥ १५३ ।। भावपाहुड़
अर्थ - जो पुरूष परम भक्ति से जिनेन्द्र देव के चरण कमलों में नमस्कार करते हैं वे श्रेष्ठ भाव रूपी शस्त्र से संसार वल्लरि के मूल जो मिथ्यात्व आदि कर्म हैं उनका जड़ से नाश कर देते हैं। धवला पुस्तक ६ में भी ऐसा उल्लेख है
"दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकुञ्जरम् ।
शतधाभेदमायाति गिरिर्वबहतो यथा ॥ अर्थ - जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन से पाप संघात रूपी कुञ्जर के सौ टुकड़े हो जाते हैं। जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। और भी - जिण बिंबदसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि।
मिच्छचदि कम्मकलावस्स खयदसणादो ॥ (ध, पु.६) MaaaS ERAT ASKEADA AKUZATATAKASASARANASANA
धमणिन्द श्रावकाचार-१५१