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________________ xarak AUSAURARANAENKRANAR SAUKTRANTERASAKAN * अथ चतुर्थ अध्याय * • सामान्य गृहस्थाशन का कार्जला गृहिणी युत ही गृहस्थ जन, द्वितीयाश्रम के योग। दैनिक कर्म सुमूल गुण, पालै तजि अघ जोग ॥१॥ अर्थ - गृहस्थ को प्रत्येक धार्मिक क्रिया गृहिणीयुत (धर्म पत्नी के साथ) ही करना उचित है । दैनिक षट्कर्मों का पालन, मूलगुणों का पालन कर पाप नाश हेतु योग्य पुरूषार्थ करना चाहिए। दोहे में द्वितीय आश्रम शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है गृहस्थ आश्रम। नीति वाक्यामृत में आश्रम के चार भेदों का नाम इस प्रकार है वैसा ही जिनागम में वर्णित है - ___“ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिरित्याश्रमाः।" १. ब्रह्मचर्याश्रम, २. गृहस्थाश्रम, ३. वानप्रस्थाश्रम, ४. सन्यासाश्रम । १. जिस पुरूष ने सम्यग्ज्ञान पूर्वक कामवासना का निग्रह किया है वह ब्रह्मचारी कहलाता है। चारित्र धारण की अपेक्षा सातवीं से नवमीं प्रतिमाधारी तक को ब्रह्मचारी कहते हैं। २.जो घर में रहते हुए दान पूजा स्वाध्यायादि षट्कर्मों का पालन करने में दत्त चित्त रहता है वह गृहस्थ है। चारित्र पालन की श्रेणियों के अनुसार छठी प्रतिमाधारी पर्यन्त गृहस्थाश्रमी कहलाता है। ३. दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी चारित्री वानप्रस्थ कहलाते हैं। ४. इनके ऊपर परम वीतरागी दिगम्बर मुद्राधारी मुनिवर यत्याश्रमी हैं। उपचार से आर्यिकायें भी यत्याश्रमी हैं । गृहस्थ को गृहिणी के साथ पूजा अभिषेक करना चाहिए । संस्कृत में लिखित जो शान्तिनाथ पूजा विधान है - XANAGANASASALAHARAKATANKEGANASARANASASAKALARAR धर्मानन्द श्रावकाचार-१४६
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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