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उसमें लिखा है
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" सपत्नीकोऽभिषेकार्चा सामग्रीहस्तसात्कृतां ।
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उपादाय ततो गच्छेदीर्यापथशुद्धितः '
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अर्थ - अभिषेक और पूजा गृहस्थ को पत्नि सहित करना चाहिए। दोनो ही शुद्ध सामग्री लेकर ईर्यापथ शुद्धि पूर्वक जिन मंदिर में पहुँचे और पूजा विधान करें ॥ १ ॥
गृहस्थ के दैनिक कर्म -
देवयजन गुरु सेव नित, धर्म शास्त्र स्वाध्याय ।
संयम तप चउदान युत, गृही बटू कर्म कराय ॥ २॥
अर्थ - गृहस्थ को आत्म विकास के लिये, पाप क्षय और सम्यक्त्ववर्धिनी पुण्य अर्जन हेतु प्रतिदिन यथाविधि देवपूजा, गुरु पूजा, गुरु की सेवा, धर्म शास्त्र का पठन-पाठन, संयम - यथायोग्य व्रत नियम लेकर इन्द्रिय जय का अभ्यास करना, इच्छा निरोध रूप तप करना और चारों प्रकार का आगम विधि से दान करना इन षट् कर्मों का प्रतिदिन पालन करना चाहिए। इनका विस्तार से अनुक्रम से आगे उल्लेख करेगे || २ ||
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१. " गृहिणीमेव गृहमाहुर्न कुड्यकट संहतिं "
अर्थ- गृहस्थधर्म के परिपालक जो श्रावक-श्राविकार्य उनके निवास स्थान को गृह कहते हैं ईंटों की दीवालों से बना मकान मात्र गृह नहीं है। ऐसा यहाँ अभिप्राय है । “तत्त्वाभ्यासः स्वकीय व्रतं दर्शनञ्च यत्र निर्मलं तद् गार्हस्थ्यं बुधानामित - रदिह पुनः दुःखदो मोहपाशः । "
अर्थ- जो तत्त्वाभ्यासी है, तत्त्वार्थ श्रद्धान पूर्वक निरतिचार अपने व्रतों का पालन करता है विद्वानों ने उसे ही गृहस्थ कहा है अन्य प्रकार जो लोक में पुत्र-पौत्रादिक के संयोग मात्र गृहस्थी मानी जाती है वह तो मोह पाश है, दुःख का कारण है ॥ १ ॥
ZAVALASACASASAYASASAERBACAUANTRAUSSAN
IETENUREAZA
धर्मानन्द श्रावकाचार १४७