________________ (2) आशीर्वाद एवं सम्मति (3) आशीर्वाद एवं सम्मति प्रस्तुत कृति को पढ़ने से मुझे प्रतीत हुआ कि इसके सुयोग्य लेखका ने इसमें देव, शास्त्र और गुरु तीनों के सम्बन्ध में जैनदर्शन की मान्यतानुसार शोधपूर्ण कार्य उपस्थित किया है। इसमें चार परिच्छेद हैं और प्रत्येक परिच्छेद शास्त्रीय प्रमाणों से युक्त है। यह ऐसी कृति है कि इसके पूर्व मुझे ऐसी महत्त्वपूर्ण रचना पढ़ने और देखने में नहीं आई। पुस्तक का नाम प्रत्येक जैन के लिए जानने में कठिन न होगा। बालकों से लेकर वृद्धों तक और सामान्य जिज्ञासुओं से लेकर विद्वानों तक के लिए इसमें बहुमूल्य सम्पदा पढ़ने के लिए मिलेगी। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लेखक ने किसी भी विषय पर विना शास्त्रीय प्रमाणों के लेखनी नहीं चलाई है। सधी हुई लेखनी के अतिरिक्त गहरा विचार भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक से मेरा विश्वास है कि जैन के सिवाय जैनेतर भी यह जान सकेंगे कि जैनधर्म में देव, शास्त्र और गुरु का कितनी गहराई और विशदता के साथ विचार किया गया है। इसमें जानकारी देने के लिए बहुत ही अच्छे ढंग से विपुल सामग्री दी गई है। इस पुस्तक की दूसरी विशेषता यह है कि कोई विषय विवाद का नहीं है। शास्त्रीय प्रमाणों से भरपूर होने के कारण निश्चय ही इस कृति का मूल्य बहुत बढ़ गया है। लेखक ने विवादों से बचते हुए अपने मन्तव्यों को भी स्पष्ट किया है। सच्चाई की कसौटी को पकड़कर ही विवेचन किया है। ___हम ऐसी कृति प्रस्तुत करने के लिए डॉ. सुदर्शन लाल जैन संस्कृत विभागाध्यक्ष, कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी तथा अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् के मन्त्री को हार्दिक मंगल आशीर्वाद एवं बधाई देते हैं। अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् का यह प्रयत्न निश्चय ही श्लाध्य है जिसने इस महत्त्वपूर्ण कृति को सुयोग्य विद्वान् से तैयार कराया और उसका प्रकाशन किया। 'श्रावकाचार' पर भी इसी प्रकार की एक रचना डॉ. जैन जी से तैयार कराई जाए, जिसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। लेखक की लेखनी बड़ी परिमार्जित और सधी हुई है तथा शोध को लिए हुए है। अतएव विद्वत्परिषद् से मैं अनुरोध करता हूँ कि उनसे श्रावकाचार पर भी इसी प्रकार की कृति तैयार कराए। बीना (म.प्र.) डॉ. दरबारीलाल कोठिया दिनाङ्क: 28.6.1993 पूर्वरीडर, का. हि.वि.वि., वाराणसी संरक्षक, अ. भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् आहारादि संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाओं) के महाज्वर की पूर्ति हेतु मूढ़ताओं (लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता रूप मिथ्यात्व) का अपनाना महापाप है। अतएव अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ने स्वयं को तथा समाज को त्रिमूढ़ता-पथिकत्व की अभद्रता से बचाने के लिए मूल आगमपरक देव, शास्त्र और गुरु के लक्षणों की सही जानकारी देने वाले विवेचनात्मक निबन्ध लिखने का प्रस्ताव किया था। प्रसन्नता है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. सुदर्शनलाल जी ने आधुनिक शोधप्रक्रिया को अपनाकर प्रकृत रचना की है। उनका प्रयास श्लाध्य है और विश्वास है कि तरुण विद्वत्वर्ग इस परम्परा को प्रगति देकर श्रमणसंस्कृति की सार्वभौमिकता के समान सार्वकालिकता को भी उजागर करेंगे। वाराणसी प्रो. खुशालचन्द्र गोरावाला दिनाङ्क 12.6.94 सदस्य, का. हि. वि. वि. समिति प्रधानमंत्री, अ. भा. दि. जैनसंघ, मथुरा (4) आशीर्वाद एवं सम्मति आपकी पुस्तक 'देव, शास्त्र और गुरु' आदि से अन्त तक पढ़ गया हूँ। आपने श्रम करके एक उत्तम संकलन पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है जो स्वागत-योग्य है।....... 'मूलाचार' न मिलने के कारण विलम्ब हुआ। पूरा प्रकरण देखकर-पढ़कर लिखा है। 243, शिक्षक कॉलोनी नीमच (म. प्र.) दिनाङ्क 12.9.1993 डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री अध्यक्ष, अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् पूर्व प्रोफेसर, शासकीय महाविद्यालय, नीमच