________________ प्रकाशन मंत्री की लेखनी से प्राक्कथन दिगम्बर जैन विद्वानों की अग्रणी संस्था अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ने अब तक अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सफल प्रकाशन कर साहित्य जगत को समृद्ध किया है। प्रकाशित ग्रन्थों का अवलोकन कर समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने प्रसन्नता प्रकट की है। ग्रन्थों का सर्वत्र समादर हुआ और उनकी समस्त प्रतियाँ हाथों हाथ उठ गईं। भारतीय विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में निःशुल्क भेंट किये गये ग्रन्थों का अध्ययन करके जैनेतर विद्वानों ने प्रकाशित ग्रन्थों की एवं विद्वत्परिषद् की साहित्य-सेवा की भी प्रशंसा की है। उसी श्रृंखला में 15 नवम्बर 1992 में सतना नगर में आमंत्रित विद्वत्परिषद् की कार्यकारिणी की बैठक में आचार्यों द्वारा मान्य "देव, शास्त्र एवं गुरु" के निर्विवाद स्वरूप का ज्ञान कराने की भावना से एक ग्रन्थ लिखवाने का प्रस्ताव किया गया। कई विद्वानों से इस कार्य को पूरा करने का आग्रह किया गया। अन्त में डॉ. सदर्शनलालजी जैन से उक्त विषय पर प्रामाणिक ग्रन्थ लिखने का विशेष अनुरोध किया गया। डॉ. जैन ने लगभग 6 माह के अनवरत परिश्रम द्वारा देव, शास्त्र और गुरु के स्वरूप पर प्रामाणिक ग्रन्थ लिखकर 27/28 जून 93 को खुरई जैन समाज द्वारा अमंत्रित दि. जैन विद्वत्परिषद् की साधारण सभा के अधिवेशन में विद्वानों की सम्मति हेतु प्रस्तुत किया। ग्रन्थ को जैन धर्म के मुर्धन्य विद्वान् डॉ. पं. दरबारीलाल जी कोठिया बीना, तथा अध्यक्ष डॉ. देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री नीमच ने आद्योपान्त पढ़कर अपनी संस्तुति प्रदान की। लेखक ने विद्वानों के सुझावों को पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, कटनी से परामर्श कर यथायोग्य समायोजन किया। इस तरह इस ग्रन्थ को इस रूप में तैयार करने में करीब डेढ़ वर्ष का समय लग गया। सुझावों एवं संशोधनों के उपरान्त ग्रन्थ को इस रूप में प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता हो रही है। अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् के कोषाध्यक्ष श्री अमरचंद्र जी जैन एम. कॉम ने ग्रन्थ-प्रकाशन हेतु विभिन्न ट्रस्टों से अर्थ उपलब्ध कराया। अतः मै परिषद् की ओर से अमरचंद्र जी का तथा उन सभी ट्रस्टों का आभार मानता हूँ। आशा है, निष्पक्ष दृष्टि से पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य सबलप्रमाणों के आधार पर लिखित यह ग्रन्थ समग्र जैन समाज में समादरणीय होगा, ऐसी भावना है। प्राचार्य, एस. पी. जैन गुरुकुल, उ.मा.वि., खुरई डॉ. नेमिचन्द्र जैन प्रकाशन मंत्री, अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् दिनाङ्क 30.5.1994 नवम्बर 1992 में सतना (मध्यप्रदेश) में आयोजित अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् की कार्यकारिणी की बैठक में निर्णय लिया गया कि परिषद् से सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर प्राचीन आगम ग्रन्थों के उद्धरणों को देते हुए एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार कराई जाए जिससे सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के सन्दर्भ में व्याप्त भ्रम को दूर किया जा सके। एतदर्थ विद्वानों से कई बार आग्रह किया गया। विवादरहित, शोधपूर्ण, प्रामाणिक तथा सर्वसाधारण सुलभ ग्रन्थ तैयार करना आसान कार्य नहीं था फिर भी गुरुजनों के अनुरोध को स्वीकार करते हुए मैंने इस कार्य को करना स्वीकार कर लिया और पूर्ण निष्ठा के साथ इस कार्य में जुट गया। एतदर्थ मैंने मुनियों और विद्वानों से संपर्क किया। समाज के लोगों से भी परामर्श किया। अन्त में पाण्डुलिपि लेकर पूज्य पं. जगन्मोहन लालजी शास्त्री कटनी वालों के पास गया। पंडित जी ने उसे आद्योपान्त देखा और वर्तमान रूप में प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। इसके बाद ग्रन्थ को नया रूप प्रदान करके 26-27 जून 1993 को विद्वतपरिषद् की खुरई में आयोजित साधारण सभा में प्रस्तुत किया। सभी ने सर्वसम्मति से इसके प्रकाशन हेतु स्वीकृति प्रदान की। इसी अधिवेशन में डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री नीमच वालों को विद्वत् परिषद् का अध्यक्ष तथा मुझे मंत्री चुना गया। पुस्तक की दो प्रतियाँ तैयार की गई थीं जिनमें से एक प्रति लेकर मैं आदरणीय पं. दरबारी लाल कोठिया जी के साथ पुस्तक-वाचना हेतु बीना गया; तथा दूसरी प्रति आदरणीय अध्यक्ष डॉ. देवेन्द्र कुमार जी अपने साथ ले गए। अध्यक्ष जी ने उसका आद्योपान्त गहन अध्ययन किया और तेईस सुझाव दिए। उन सुझावों को दृष्टि में रखते हुए मैंने तदनुसार मूल प्रति में संशोधन किये। पश्चात् पुनः आदरणीय पं. जगन्मोहनलालजी के पास कटनी गया जहाँ पुनः वाचन करके ग्रन्थ को अंतिम रूप दिया गया। इस तरह एक लम्बा समय इस कार्य में लग गया। प्रस्तुत पुस्तक को चार अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम तीन अध्यायों में क्रमश: देव, शास्त्र और गरु सम्बन्धी विवेचन किया गया है। चतर्थ अध्याय उपसंहारात्मक है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में भी एक छोटा उपसंहार दिया गया है। अन्त में दो परिशिष्ट हैं। प्रथम परिशिष्ट द्वितीय अध्याय की चूलिकारूप है जिससे शास्त्रकारों और शास्त्रों की ऐतिहासिक जानकारी मिल सकेगी। आगमों के उत्सर्गमार्ग (राजमार्ग, प्रधानमार्ग) तथा अपवादमार्ग (विशेष परिस्थितियों वाला मार्ग) के विवेकज्ञान को दृष्टि में रखते हुए आभ्यन्तर और -