________________ 7 देव, शास्त्र और गुरु . को नष्ट करके केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को देख लिया है वे अरिहन्त हैं। अथवा घाति-अघाति आठों कर्मों को दूर कर देने वाले अरिहन्त हैं, क्योंकि अरि-हनन (कर्मशत्रु-विनाश) दोनों में समान है। जैसा कि कहा है"अरि = शत्रु का नाश करने से 'अरिहंत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को 'अरि' कहते हैं। ...... अथवा रज= आवरक कर्मों का नाश करने से अरिहन्त' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ........ अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन कर्मों (मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण) के नाश का अविनाभावी है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर चार अघातिया कर्म भी भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते है।" अर्हन्तों और सिद्धों में इसीलिए कथंचिद् भेद और कथंचिद् अभेद माना जाता है। अर्हन्तों के छियालीस गुण शास्त्रों में अर्हन्तों के जो 46 गुण बतलाए गए हैं वे तीर्थङ्करों में पाए जाते हैं, सभी अर्हन्तों में नहीं। अर्हन्तों के 46 गुण निम्न हैं :(क) चार अनन्त चतुष्टय- अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य-ये चार अनन्त चतुष्टयरूप गुण जीव के आत्मिक गुण (वास्तविक) हैं जो सभी अर्हन्तों में नियम से हैं, परन्तु शेष निम्न 42 बाह्यगुण भजनीय हैं (किसी में हैं, किसी में नहीं हैं)। (ख) आठ प्रातिहार्य (इन्द्रजाल की तरह चमत्कारी गुण)- अशोक वृक्ष, सिर पर तीन.छत्र, रत्नखचित सिंहासन, दिव्यध्वनिखिरनो,' दुन्दुभि-नाद, पुष्प१. खविदधादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसवट्ठा अरहंता णाम। अधवा, णिवविदद्रुकम्माणं घाइदषादिकम्माणं च अरहते त्ति सण्णा, अरिहणणं पदिदोण्ह भेदाभावादो। -ध०८/३.४१/८९/२. 2. अरिहननादरिहन्ता / अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिमोहः। .... रजो हननादा अरिहन्ता।.... रहस्यमन्तरायः तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवद्भित्रशक्तीकृताधातिकर्मणो हननादरिहन्ता। -ध०१/ 1.1.1/42/9. 3. तिलोयपण्णत्ति 4/905-923, जम्बूद्वीपपण्णत्ति 13/93-130, दर्शनपाहुड टीका 35/28. 4. तिलोयपण्णत्ति में दिव्यध्वनि-खिरना' के स्थान पर 'भक्तियुक्तगणों द्वारा वेष्टित रहना लिखा है। वही। प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) 11 वृष्टि, पृष्ठभाग में प्रभामण्डल तथा चौसठ चमरयुक्त होना। ये आठ प्रातिहार्य कहलाते हैं। (ग) चौंतीस अतिशय (आश्चर्यजनक गुण)- जन्म के 10, केवलज्ञान के 11 तथा देवकृत (देव गति के देवकृत) 13 अतिशयों को मिलाकर कुल चौंतीस अतिशय होते हैं। तिलोयपण्णत्ति में 'दिव्यध्वनि' (भाषाविशेष) नामक देवकृत अतिशय को केवलज्ञान के अतिशयों में गिनाया है जिससे प्रसिद्ध अतिशयों के साथ केवलज्ञान और देवकृत अतिशयों में अन्तर आ गया है। वस्तुतः दिव्यध्वनि अतिशय केवलज्ञान से सम्बन्धित है परन्तु देव उसे मनुष्यों की तत्तद् भाषारूप परिणमा देते हैं जिससे उसे देवकृत अतिशय भी माना जा सकता है। (अ) जन्म के 10 अतिशय (तीर्थङ्कर के जन्मसमय में स्वाभाविकरूप से उत्पन्न अतिशय)- 1. पसीना न आना, 2. निर्मल शरीर, 3. दूध के समान धवल (सफेद) रक्त, 4. वज्रवृषभनाराचसंहनन (जिस शरीर के वेष्टन = वृषभ, कीलें नाराच और हड्डियाँ = संहनन वज्रमय हों), 5. समचतुरस्र शरीर-संस्थान (शरीर का ठीक प्रमाण में होना, टेढ़ा आदि न होना), 6. अनुपम रूप, 7. नृप-चम्पकपुष्प के समान उत्तम सुगन्ध को धारण करना,८. एक हजार आठ उत्तम लक्षणों को धारण करना, ९.अनन्त बल और १०.हित-मित-प्रिय भाषण। ये जन्म से सम्बन्धित दश अतिशय हैं। (ब) केवलज्ञान के 11 अतिशय (घातिया कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञान के साथ-साथ उत्पन्न होने वाले अतिशय)-१. चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता, 2. आकाशगमन, 3. हिंसा का अभाव, 4. भोजन का अभाव, 5. उपसर्ग का अभाव, 6. चारों ओर (सबकी ओर) मुख करके स्थित होना, 7. छायारहित होना, ८.निर्निमेष दृष्टि (पलक न झपकना), 9. समस्त विद्याओं का ज्ञान, 10. सजीव होते हुए भी नख और रोमों (केशों) का समान रहना (न बढ़ना न घटना) और 11. अठारह महाभाषायें, सात सौ क्षुद्रभाषायें तथा संज्ञी जीवों की जो समस्त अन्य अक्षरात्मक-अनक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें एक साथ (बिना कण्ठ-तालु आदि के व्यापार के) दिव्यध्वनि का खिरना। (स) देवकत 13 अतिशय (तीर्थङ्करों के माहात्म्य से देवों के द्वारा किए गए अतिशय)-- 1. संख्यात योजन तक वन का असमय में भी पत्र, फूल और फलों की वृद्धि से युक्त रहना, 2. कंटक और रेत आदि से रहित सुखदायक वायु का