________________ * देव, शास्त्र और गुरु अर्हन्त (जीवन्मुक्त) ___ पूजार्थक 'अर्ह' धातु से 'शतृ' (अत्) प्रत्यय करने पर 'अर्हत्' शब्द बनता है। इसीलिए देव अतिशय पूजा, सत्कार तथा नमस्कार के योग्य होने से और तद्भव मोक्ष जाने के योग्य होने से अर्हन्त, अर्हन् या अर्हत् कहलाते हैं। कर्म- शत्रु का हनन करने से 'अरिहन्त' संज्ञा भी है। भावमोक्ष, केवलज्ञानोत्पत्ति, जीवन्मुक्त और अर्हत् ये सभी एकार्थ-वाचक हैं। जैनधर्म के अनुसार ज्ञानावरणीय आदि चार घातिया कर्मों के क्षय के बाद केवलज्ञान प्रकट होता है। केवलज्ञान होने के बाद साधक 'केवली' कहलाता है। इसे ही अर्हत, अर्हन्त, अरिहन्त जीवन्मुक्त आदि कहते हैं। इन्हें ही त्रिलोक-पूजित परमेश्वर कहा गया है। अर्हन्त के भेद ____अपेक्षा भेद से अर्हन्त के दो प्रकार हैं - तीर्थङ्कर और सामान्य केवली। जिनके कल्याणक-महोत्सव मनाए जाते हैं, ऐसे अर्हन्त पद को प्राप्त विशेष पुण्यशाली आत्माओं को तीर्थङ्कर कहते हैं तथा कल्याणकों से रहित शेष को सामान्य केवली (अर्हन्त) कहते हैं। प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) अर्हन्त के सात प्रकार भी गिनाए गए हैं - (1) पाँचों कल्याणकों से युक्त तीर्थङ्कर (जो पूर्वजन्म में तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध करते हैं उनके पाँचों कल्याणक होते हैं), (2) तीन कल्याणकों से युक्त तीर्थङ्कर (जो उसी जन्म में तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध करके तद्भव मोक्षगामी होते हैं उनकी दीक्षा, तप और मोक्ष ये तीन या इनमें से दो कल्याणक होते हैं। ये विदेहक्षेत्र में होते हैं), (3) दो कल्याणकों से युक्त तीर्थङ्कर, (4) सातिसय केवली (गन्धकुटीयुक्त केवली), (5) सामान्य केवली अथवा मूक केवली (जो उपदेश नहीं देते), (6) उपसर्ग केवली (जिनको उपसर्ग के बाद केवलज्ञान हो) और (7) अन्तकृत् केवली। इसी प्रकार अन्य अपेक्षा से तद्वस्थ केवली (जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ है उसी पर्याय में स्थित 'केवली') तथा सिद्धकेवली (सिद्ध जीव) ये भेद भी मिलते हैं। केवली के मनोयोग न होने से केवल वचन और काययोग की प्रवृत्ति की अपेक्षा जीवन्मुक्त के सयोगकेवली (13 वें गुणस्थानवर्ती) और अयोगकेवली (14 वें गुणस्थानवी) ये दो भेद प्रसिद्ध हैं। केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से जिसका अज्ञान विनष्ट हो गया है, जिसने केवल-लब्धि प्राप्तकर परमात्म-संज्ञा प्राप्त कर ली है, वह असहाय (स्वतन्त्र, निरावरण) ज्ञान और दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, दो योगों से सहित होने के कारण 'सयोगी' तथा घातिकर्मों से रहित होने के कारण 'जिन' कहा जाता है। जो 18 हजार शीलों के स्वामी हैं, आस्रवों से रहित हैं, नूतन बंधने वाले कर्मरज से रहित हैं, योग से रहित हैं, केवलज्ञान से विभूषित हैं उन्हें अयोगी परमात्मा (अयोगी जिन) कहा जाता है। सिद्धों की भी 'अर्हन्त' संज्ञा कर्मशत्रु के विनाश के प्रति दोनों (अर्हन्त और सिद्ध) में कोई भेद न होने से धवला में सिद्धों को भी अर्हन्त (अरहन्त, अरिहन्त) कहा है- जिन्होंने घातिकर्म १.क०पा०, जयधखला 1/1.1.6/311. 2. केवलणाण-दिवायर-किरणकलावप्पणासि अण्णाओ। णवकेवल-लद्धग्गमपाविय परमप्प-ववएसो।। 27 असहय-णाण-दसण-सहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वुत्तो।। 28 सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई।। -पंचसंग्रह (प्राकृत) 30. . तथा देखिए, गो०जीव० 63-65; द्रव्यसंग्रह टीका 13/35. 1. अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। अरिहंति वंदण-णमंसणाणि अरिहंति पूयसवकारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति।। --मू० आ० 505,506. अतिशयपूर्जार्हत्वद्वान्तः / -ध. 1/1.1.1/44/6. पञ्चमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन अर्हन् भण्यते। - द्रव्यसंग्रह, टीका 50/211/1 तथा देखिए। महापुराण 33/186, नयचक्र (बृहद्) 272. 2. जर-वाहि जम्म-मरणं चउग्गइगमणं च पुण्णपावं च। हंतूण दोसकम्मे दुउ णाणमयं च अरहंतो।। -बो०पा० 30. रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चदे। 505 जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होन्ति। हंता अरिं च जम्मं अरहंता तेण वुच्चंति।। -मू०आ० 561 तथा देखिए, धवला 1/1.1.1./42.9. 3. भावमोक्षः केवलज्ञानोत्पत्तिः जीवन्मुक्तोऽर्हत्पदमित्येकार्थः / -पंचास्तिकाय, ता०वृ० 150/2.16/18. 4. सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः / / यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः।। - हेम० निश्चयालङ्कार।