________________ देव, शास्त्र और गुरु जन्म लेकर तथा विजयादिक के देव दो बार मनुष्य जन्म लेकर नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर तथा लौकान्तिक देव नियम से मोक्षगामी होते हैं और इन देवगतियों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न हाते हैं। लौकान्तिक देव केवल दीक्षा-कल्याणक में आते हैं अर्थात् जब भगवान् को वैराग्य होता है और वे दीक्षा लेते हैं तो लौकान्तिक देव आकर उनके विचारों का समर्थन करते हैं, फिर कभी नहीं आते। भवनत्रिक (भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क) देवों को अधम देव (कुदेव) कहा गया है। यद्यपि नवौवेयक तक मिथ्यादृष्टि भी जाते हैं परन्तु उन्हें कुदेव नहीं कहा गया है। इनकी पूजा नहीं होती। भवनवासी,व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में सम्यग्दृष्टि जन्म नहीं लेते हैं। यहाँ सौधर्म इन्द्र का शासन होता है। अतः भवनत्रिक के देव और श्री आदि देवियाँ सौधर्म इन्द्र के शासन में रहते हैं। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से ही ये तीर्थङ्करों की सेवा करते हैं। अतएव पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि को मन्दिरों में भगवान् के सेवक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। ये भगवान की तरह पूज्य नहीं हैं। जिनेन्द्रभक्त होने से क्षेत्रपालादि में साधर्म्य-वात्सल्य रखा जा सकता है, पूज्य देवत्व मानना मूढता (अज्ञान) है। सरागी देवों से अनर्घ्यपद (मोक्षपद) प्राप्त की कामना करके उन्हें मन्त्र पढ़कर अर्घ्य चढ़ाना, अज्ञान नहीं तो क्या है? इनके अलावा संसार में कई कल्पित देव (अदेव) हैं। जिन क्षेत्रपाल आदि के नाम जैन सम्मत देवगति के जीवों में आते हैं उन्हें कुदेव (अधम या मिथ्यादृष्टि देव) कहा गया है तथा जिनका नाम जैनसम्मत देवगति में कहीं नहीं आता है ऐसे कल्पित देवों को अदेव (अदेवे देवबुद्धिः) कहा गया है। अर्हन्त और सिद्ध देवाधिदेव हैं जिनकी सभी (चारों गतियों के देवादि) जीव आराधना करते हैं। यहाँ देवगति को प्राप्त संसारी जीवों का विचार करना अपेक्षित नहीं हैं अपितु वीतरागी, आराध्य देवाधिदेव ही विचारणीय हैं, क्योंकि उन्हें ही सच्चे देव, परमात्मा, भगवान्, ईश्वर आदि नामों से कहा गया है। इस तरह सामान्य रूप से कथित देवों को निम्न चार भागों में विभक्त किया जा सकता है१. ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः। - त०सू 4.24 विजयादिषु द्विचरमाः। -त०सू०, 4.26 तथा इस पर सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाएँ। 2. भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु। -ध० 1/1.1.169/406/5. 3. देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्। -आ०मी०१, तथा वही, 2-7. प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) (1) देवाधिदेव (अर्हन्त और सिद्ध)। ये ही सच्चे आराध्य देव हैं। (2) सामान्य देव (देवगति के सम्यग्दृष्टि देव)। (3) कुदेव (देवगति के मिथ्यादृष्टि देव = भवनत्रिक के देव)। (4) अदेव (कल्पित देव)। भट्टारक-परम्परा से शासन देवी-देवताओं की पूजा का अनुचित प्रवेश वि.सं. 1310 में आचार्य प्रभाचन्द्र दि० जैन मूलसंघ के पट्ट पर आसीन हुए। इनके समय में एक विशेष घटना हई-वि. स. 1375 में शास्त्रार्थ में विजयी होने पर दिल्ली के बादशाह ने राजमहल में आकर दर्शन देने की प्रार्थना की। एक नग्न साधु राजमहलों में रानियों के समक्ष कैसे जाए? न जाने पर राजप्रकोप का भय देखकर तथा समाज के विशेष अनुरोध पर धर्मवृद्धि हेतु आचार्य प्रभाचन्द्र लंगोटी धारण करके राजमहल में गए। पश्चात् मुनि-परम्परा में शिथिलाचार न आ जाए एतदर्थ आचार्य पद छोड़कर 89 वर्ष की आयु में भट्टारक नाम रखा। सवस्त्र भट्टारक वस्तुतः श्रावक ही कहलाए। परन्तु इस अपवादमार्ग का कालान्तर में बड़ा दुरुपयोग हुआ। जिनेन्द्र देव की मूर्तियों की रक्षार्थ सेवक के रूप में जो शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखी गई थीं उन्हीं की पूजा की जाने लगी और वस्त्रधारी भट्टारकों द्वारा सरागी शासनदेवी-देवताओं की पूजा से सुख-साधनों का समाज में प्रचार हुआ। इस तरह सरागी संसारी देवों की पूजा का शुभारम्भ हुआ जो सर्वथा अनुचित है और मिथ्यात्व का द्योतक है। वस्तुतः पद्मावती आदि देवियाँ और अन्य शासन देव अपूज्य हैं। जिनेन्द्रभक्त होने से उनमें वात्सल्यभाव रखा जाना उचित है। देव सृष्टिकर्ता आदि नहीं जैनागमों में भगवान् को सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, अपितु मोक्षमार्ग के नेता (हितोपदेष्टा), कर्मरूपीपर्वतों के भेत्ता (निर्दोष एवं वीतरागी) तथा समस्त पदार्थों के ज्ञाता के रूप में स्वीकार किया है और उन्हें ही नमस्कार किया गया है। इससे स्पष्ट 1. देखें, पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री, परवार जैन समाज का इतिहास, प्रस्तावना, पृ० 27-34 / 2. मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।। - तत्त्वार्थसूत्र, मंगलाचरण /