________________ प्रथम अध्याय देव (अर्हन्त और सिद्ध) का स्वरूप की विधि 94, क्या एकाधिक साधु एक साथ एक चौके में आहार ले सकते हैं? 94, क्या चौके के बाहर से लाया गया आहार ग्राह्य है? 95, भिक्षाचर्या को जाते समय सावधानी 95, आहार लेते समय सावधानी 95, दातार के सात गुण 95, आहार के अन्तराय 96, छियालीस दोषों से रहित आहार की ग्राह्यता 96, उद्गम के सोलह दोष 97, उत्पादन के सोलह दोष 98, एषणा के दश दोष 99, संयोजनादि चार दोष 100, अन्य दोष- चौदह मलदोष, अधः कर्मदोष 100 / वसतिका (निवासस्थान)- वसतिका कैसी हो? 100, शून्य-गृहादि उपयुक्त वसतिकायें हैं 101, वसतिका कैसी न हो? 102 / / विहार- एक स्थान पर ठहरने की सीमा तथा वर्षावास 103, रात्रिविहार-निषेध 104, नदी आदि जलस्थानों में प्रवेश (अपवाद मार्ग) 105, गमनपूर्व सावधानी 105, अनियत विहार 106, विहारयोग्य क्षेत्र एवं मार्ग 106, एकाकी विहार का निषेध 106 / गुरुवन्दना-वन्दना का समय 107, वन्दना के अयोग्य काल 108, वन्दना की विनय-मूलकता 108, वन्दना के बत्तीस दोष 108, वन्दना के पर्यायवाची नाम 109, महत्त्व 109, कौन किसकी वन्दना करे। और किसकी न करे? 110, वन्दना कैसे करें? 111 / अन्य विषय- अन्य संघ से समागत साधु के प्रति आचार्य आदि का व्यवहार 111, बाईस परीषहजय 112, साधु की सामान्य दिनचर्या 113, आर्यिका-विचार 113, उपसंहार-११४ चतुर्थ अध्याय : उपसंहार (116-121) परिशिष्ट प्रथम परिशिष्ट-प्रसिद्ध दिगम्बर जैन शास्त्रकार और शास्त्र (122-138) श्रुतधराचार्य 122, सारस्वताचार्य 126, प्रबुद्धाचार्य 130, परम्परापोषकाचार्य 135, आचार्य तुल्य काव्यकार और लेखक 137 / द्वितीय परिशिष्ट- संकेताक्षर और सहायक ग्रन्थ-सूची (139-142) प्रस्तावना ___ संसार में अनेक प्रकार के आराध्य देवों, परस्पर विरुद्ध कथन करने वाले शास्त्रों तथा विविध रूपधारी गुरुओं की अनेक परम्पराओं को देखकर मानव मात्र के मन में स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इनमें सच्चे देव. सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु कौन हैं? जिनसे स्वयं का एवं संसार के प्राणियों का कल्याण हो सकता है। किसी भी कल्याणकारी धर्म की प्रामाणिकता की कसौटी उसमें स्वीकृत आराध्यदेव, शास्त्र (आगम) और गुरु हैं। यदि आराध्य देव रागादि से युक्त हों, शास्त्र रागादि के प्रतिपादक हों तथा रागादि भावों से युक्त होकर गुरु रागादिजनक विषयों के उपदेष्टा हों तो उनसे किसी भी प्रकार के कल्याण की कामना नहीं की जा सकती है। अतः कल्याणार्थी को सच्चे देव. शास्त्र और गरु की ही शरण लेना चाहिए। जैनधर्म के आगम ग्रन्थों में सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की जो पहचान बतलाई है उसका विचार यहाँ क्रमश: तीन अध्यायों में किया जायेगा। सच्चे देव शब्द का अर्थ जैन आगमों में 'देव' शब्द का प्रयोग सामान्यतया जीवन्मुक्त (अर्हन्त), विदेहमुक्त (सिद्ध) तथा देव गति के जीवों के लिए किया गया है। इनमें से प्रथम दो (अर्हन्त और सिद्ध) में ही वास्तविक देवत्व है, अन्य में नहीं। देवगति के देव चार प्रकार के हैं: भवनवासी (प्रायः भवनों में रहने वाले), व्यन्तर (विविध देशान्तरों तथा वृक्षादिकों में रहने वाले), ज्योतिष्क (प्रकाशमान सूर्य, चन्द्रमा आदि), और वैमानिक (रूढि से विमानवासी, क्योंकि ज्योतिष्क देव भी विमान में रहते हैं)। देवगति में स्थित इन चार प्रकार के जीवों में वैमानिक देवों की श्रेष्ठता है। वैमानिकों में भी सर्वार्थसिध्दि तथा लौकान्तिक (पंचम स्वर्गवर्ती) के देव एक वार मनुष्य 1. देवाश्चतुर्णिकायाः। -त०सू० 4.1. के पुनस्ते? भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति। - स० सि० 4.1.