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(५८) सवाने-उमरी. भरतीथी, और मुननेवाले लोग कसरतसे जमाहोतेथे, धर्मचर्चाके लिये कइमहाशय आतेजातेथे और माकुलजवाब सुनकर खुशहोते थे, इनदिनोंमें महाराजने-इस्तिहार--छपवाकर शहरमें इसलिये बांट दियकि-आमलोग-धर्मचर्चाका फायदा हासिल करे,
पyषणपर्वकी अखीरकेरौज जैनोमें-जो-चैत्यपरिपाटिका जकसा निकलताहै चारस्तुति-त्रिस्तुति-माननेवालोका आपसमें वादानुवाद हुवा और उसबातका फैसला रतलामराज्यसे यहहुवाकि चारस्तुति माननेवालोका जलसा पेस्तर निकले, उस वख्त बडा जलसा हुवाथा, रतलामके जैनश्वेतांबर-चारस्तुति माननेवाले श्रावकोने-महाराजकी बहुत कदर किइ, और एक-खितावरेशमी कपडेपर सुनहरी हर्कोसे लिखकर बतौर जैनपताकाके भेट दिया, उसमें लिखाथा-विद्यासागर-न्यायरत्न-महाराज-शांतिविजयजित्मसादात्-जैनधेतांबर धर्मोजयति,-इसकेशाथ एक-मा नपत्रभी-इसमजमूनका दियाकि-जैनधेतांबरधर्मोपदेष्टा-विद्यासागर न्यायरत्न-महाराजश्री शांतिविजयजीकी खिदमतमे-हम-रतलामका-जैनधेतांबरसंघ-यह-मानपत्र और जैनपताका भेट करते है, बराये महरबानी मंजुरकरेगे, सभी जैनश्वेतांबरधर्मावलंबीकों मालूम होकि-महाराज-शांतिविजयजी-जैनमूत्रसिद्धांतके पठित-औरषड्दर्शनके जानकारहै, जिनोने पंजाब-मारवाड-मेवाड-गुजरात राजपुताना-मालवा-वगेरा मुल्कोकी सफरकरके जैनधर्मकों तरकी दिइ, आम जैनश्वेतांबरसंघ इनकेनामसे वाकिफहै, इनके लेख कइ गुजराती-शास्त्री-जैनमासिकपत्रोमें छपेहुवे मौजूदहै, ये-मुनिमहा. राज हमारे शहर में तशरीफ लाये, और संवत् ( १९५४ ) का चौमासा यहांकिया, हमारे रतलामशहरमें करीब (७००) घर जैन तापरोके है, हमलोगोकी अछी तकदीरथीकि-महाराजका पधा
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