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________________ सवाने-उमरी. चाहिये. जैन-इसवातसें-खिलाफहै. विद्वान्-अविद्वान्-पापीऔर-अनाचारी अलगहै, और-देव-असुर-राक्षस-और-पिशाच अलगहै, ११-मनुष्यगतिमें-जितने-मनुष्यहै सब आगये, जोलोग कहते है दुनिया में सुखी है-वह-देव-और दुखी है-वह-नारकी है, जैनलोग इसबातसे खिलाफहै, जैनलोग-स्वर्ग-नरक-अलगचीज मानते है. मनुष्यगति अलग मानते है. १२-तिर्यंचगतिमें जितने-पशु-पक्षी-हाथीघोडे-मोर-तोतेचिडिया वगेराहै सब आगये, १३-नरकगति पृथवीके नीचे है, जो अजहद पाप करता है ऊसगतिकों पाताहै, जहांकि-शिवाय तकलीफ-और-रंजके दुसरी चीज-नामनीशानकोंभी नहि है, १४-मूर्तिपूजा-और-तीर्थ-जैनलोग मानते है, और तीर्थोकी जियारतकों जानापुन्य समझते है, १५-अर्हन्-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु-श्रद्धा-ज्ञानचारित्र-और-तप-ये-नवपद जैन मजहबमें-आलादर्जेके पाक समझेगये है, १६-तकदीर-और-तदबीरमें तकदीर बडी-और-तदबीर छोटी समझी गइहै.-तकदीर बुरीहो-तो-तदबीर चाहे जितनीकरलो फायदा-न-होगा. १७-जैनलोग-तमाम बस्तुकों-स्वस्वरुपसे अस्ति, और परस्वरुपसे नास्ति मानते है, और इसीकों-स्याद्वाद न्याय कहते है, . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034925
Book TitleKitab Jain Tirth Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages552
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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