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________________ (३२) सवाने-उमरी. ५-जैनमजहबमें-जगत्-अनादि है,-सबजीव अपनेअपने कियेहुवे कर्मोकों खुद भोगते है, इश्वर उसका फलदेवे, ऐसा जैनलोग नहीमानते. रागद्वेष वगेरा दोषोसें रहित इश्वर-फलदेनेके-झगडेमें क्यों पडे ? जो शख्श जैसा कर्म करेगा वैसा फल खुद पायगा, जैसे शराब पीनेवाला नशेके जोरसे खुद गाफिल होजाताहै, वैसे हरेक जीव अपनेकियेहुवे पापकर्मसें गाफिल होताहै, ६-जिसकेपास हथियारहै, जिसकेपास औरतहै. जिसकेपास जपमालाहै, और-जो-दुश्मनको मारनेकी तयारीमें खडे है, उनकों जैनमें देवनही मानेगये, ७-पंचमहायतकों इख्तियार करनेवाले-भिक्षा मांगकर सीकमपरवरीश करनेवाले-और-सत्यधर्मके उपदेष्टा-जैनमें-मुनिमानेजातेहै, -जिनेंद्रदेवोके फरमायेहुवे-जैनागमको-जैनमजहबमें-सत्शासमाने है, जिसमें पूर्वापर विरोध-और-इन्साफसे खिलाफ बात नहींहोती, ९-पक्षपातरहित-और-दुर्गतिसे अछीगतिको पहुचानेवालाजैनमे-धर्म-मानागयाहै, १०-जैनशास्त्रमें स्वर्ग मनुष्य तिर्यंच और-नरक-ये-चारगति मानीगइहै, स्वर्गगति वहहै-जो-आस्मानमें चांदसूर्य वगेराके विमान देखतेहो, उसमें देवतेलोग रहते है, और-वे-खुद उसकों चलाते है. जोलोग कहते है, विद्वानोंकों देव मानना अविद्वानोकोंअसुर,-पापियोंको राक्षस, और अनाचारियोंकों पिशाच मानना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034925
Book TitleKitab Jain Tirth Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages552
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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