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जैन-चैत्य-स्तव, (३५७) मालूमनहींहोती. ५९-रोहणाद्रिपहाडमें-तीर्थंकर महावीरस्वामीका तीर्थथा-चोभी-अवनहीरहा, ६०-माढेरमें, ६१-चायडमें, ६२मेतुंडकमें-६३-मुंडस्थलमें, और-श्रीमालपत्तनमे एकएक जैनतीर्थये मगर- वेभी-नेस्त-व-नामुदहोगये, ६५-कुंडग्राममें-६६-टंकास्थानमे, ६७-गंगाझीलमें,-६८-सरस्थानमें, पुंदूपर्वतमें, और-७०नंदीवर्द्धनकोटिभूमिमेभी-एकएक जैनतीर्थथे मगर उनकाभी कुछपचा नहीलगता.
७१-तिमालमें, ७२-मुरीडमें, ७३-श्वेतंबिकानगरीमें-७४-- मणवतीनदीकेकनारे-ढीपुरीनगरीमें-पेस्तर जैनतीर्थथे वेभी अबनहीरहे, ७५-राजाश्रीपालजीके जमानेमें मुत्तस्सिल रत्नसंचया नगरीके तीर्थकर आदिनाथ महाराजके नामका जैनतीर्थया, ७६-मुल्कमारवाड-कस्बे-सांचोरमें तीर्थकर महावीरस्वामीका तीर्थइसवख्त मौजुदहै, मुल्कबर्मामें जो-आवानामका शहरहै, चंदराजाकेचरितसें मा. लूमहोताहै सायत ! वही पेस्तर आभापुरीहो,
[ तीर्थअष्ठापद, ] अष्टापदतीर्थ-जोकि-मुताबिक जैनशास्त्रके फरमानसे-वैताज्य पर्वतके दखनमें वाकेहै आजकल यहांसेकोई-वहां-जा-नहाँसकता,
ॐ [जैनचैत्य-स्तवः, ]
(स्रग्धरा-वृतम्,-) सद्भक्त्या देवलोके रविशशिभवने व्यंतराणां सिकाये, नक्षत्राणां निवासे ग्रहगणपटले तारकाणां विमाने, पाताले पंन्नगेंद्रे स्फुटमणिकिरणे ध्वस्तसांद्रांधकारे, श्रीमतीर्थकराणां प्रतिदिवसमहं तत्रचैत्यानिवंदे, १
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