SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . श्री त्रिलोक तीज व्रत कथा - [43 ******************************** करके सोलहवें स्वर्गमें स्त्रीलिंग छेदकर देव हुई वहां नाना प्रकारके देवोचित सुख भोगे, तथा अकृत्रिम जिन चैत्यालयोंकी वन्दना आदि करते हुये यथा साध्य धर्मध्यानमें समय बिताया। __पश्चात् वहांसे चयकर मगधदेशके कंचनपुर नगरमें राजा पिंगल और रानी कमललोचनाके सुमंगल नामका अति रूपवान तथा गुणवान पुत्र हुआ। सो वह राजपुत्र एक दिन अपने मित्रों सहित वनक्रीडाको गया था, कि वहांपर परम दिगम्बर मुनिको देखकर उसे मोह उत्पन्न हो गया, सो मुनिकी वन्दना. करके पाद निकट बैठा और पूछने लगा-हे प्रभो! आपको देखकर मुझे मोह क्यों उत्पन्न हुआ? तब श्री गुरु कहने लगे-वत्स! सुन, यह जीव अनादिकाल से मोहादि कर्मोसे लिप्त हो रहा है, और क्या जाने इसके किस किस समयके बांधे हुए कौन कौन कर्म उदयमें आते है जिनके कारण यह प्राणी कभी हर्ष व कभी विषादको प्राप्त होता हैं। ___इस समय जो तुझे मोह हुआ है इसका कारण ग्रह हैं कि इसके तीरसे भवमें तू हस्तिनापुरके राजा विशाखदत्तकी भार्या विजयसुन्दरी नामकी रानी थी, सो तुझे संयमभूषण आर्यिकाने सम्बोधन करके त्रैलोक्य तीजका व्रत दिया था, जिसके प्रभावसे तु स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गमें देव हुआ, और वहांसे चयकर यहां राजा पिंगलके शुमंगल नामका पुत्र हुआ है और वह संयमभूषण आर्यिकाका जीव वहांसे समाधिमरण करके स्वर्गमें देव हुआ। . वहांसे चयकर यहां मैं मनुष्य हुआ हूँ, सो कोई कारण पाकर दीक्षा लेकर विहार करता हुआ यहां आया हूँ। इसलिये तुझे पूर्व स्नेहके कारण यह मोह हुआ है।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy