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________________ 44] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** __हे वत्स! यह मोह महादुःखका देनेवाला त्यागने योग्य हैं। यह सुनकर सुमंगलको वैराग्य उत्पन्न हुआ, और उसने इस संसारको विडम्बनारूप जानकर तत्काल जिनेश्वरी दीक्षा धारण की। और कितनेक काल तक घोर तपश्चरण करके केवलज्ञानको प्राप्त होकर मोक्षपद प्राप्त किया। इस प्रकार विजय सुन्दरी रानीने त्रैलोक्य तीज व्रतको पालन कर देवों और मनुष्योंके उत्तम सुखोंको भोगकर निर्वाण पद प्राप्त किया। सो यदि और भी भव्य जीव श्रद्धा सहित यह व्रत पालें तो वे भी ऐसी उत्तम गतिको प्राप्त होवेंगे। . विजयसुन्दरी व्रत किया, तीज त्रिलोक महान। सुरनरके सुख भोगकर, 'दीप' लहा निर्वाण॥१॥ (६श्री मुकुट सप्तमी व्रत कथा) पंच परमपद प्रणम करि, शारद मात नमाय। मुकुटसप्तमी व्रत कथा, भाषा कहूँ बनाय॥ जम्बूद्वीपके कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नगर है। वहांके राजा विजयसेनकी रानी विजयावतीसे मुकुटशेखरी और विधिशेखरी नामकी दो कन्याएं थी। इन दोनों बहिनोंमें परस्पर ऐसी प्रीति थी कि एक दूसरीके बिना क्षणभर भी नहीं रह सकती थी। निदान राजाने ये दोनों कन्याएं अयोध्याके राजपुत्र त्रिलोकमणिको ब्याह दी। एक दिन बुद्धिसागर और सुबुद्धिसागर नामके दो चारणऋषि आहारके निमित्त नगरमें आये। सो राजाने उन्हें विधिपूर्वक पडगाहकर आहार दिया, और धर्मोपदेश श्रवण करनेके अनंतर राजाने पूछा-हे नाथ! मेरी इन दोनों पुत्रियोंमें परस्पर इतना विशेष प्रेम होनेका कारण क्या है?
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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