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________________ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** यह सामर्थ्य नहीं कि क्षणमात्र भी आयुको बढ़ा सके। यदि ऐसा होता तो बडे बडे तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पुरुषोंको क्यों कोई मरने देता? मृत्युसे यद्यपि वियोगजनित दुःख अवश्य ही मोहके वश मालूम होता हैं, तथापि उपकार भी बहुत होता हैं। यदि मृत्यु नहीं होती तो रोगी रोगसे मुक्त न होता, संसारी कभी सिद्ध न हो सकता, जो जिस दशामें होता उसीमें रह जाता। इसलिये यह (आर्तध्यानसे) अशुभ कर्मोका बन्ध होता है जिससे अनेकों जन्मांतरो तक रोना पडता हैं। रोना बहुत दुःखदाई हैं। मुनिके उपदेशसे राजाको कुछ धैर्य बन्धा। वे शोक तजकर प्रजापालनमें तत्पर हुए और मुनिराज भी विहार कर गये। एक दिन रानीने संयमभूषण आर्जिकाके दर्शन करके पूछा-माताजी! मेरे योग्य कोई व्रत बताईये जिससे मेरी चिंता दूर होवे और जन्म सुधरे तब आर्जिकाजीने कहा-तुम त्रैलोक्य तीज व्रत करो। भादों सुदी 3 को उपवास करके चौवीस तीर्थंकरोंके 72 कोठेका मंडल मांडकर तीन चौवीसी पूजा रात्रिको जागरण करके भजन व धर्मध्यानमें काल बिताये। इस प्रकार तीन वर्ष तक यह व्रत कर पीछे उद्यापन करे, अथवा द्विगुणित करे। इसे दूसरे लोग रोट तीज भी कहते हैं। .. उद्यापन करनेके समय तीन चौवीसीका मण्डल मांडकर बडा विधान पूजन करे और प्रत्येक प्रकारके उपकरण तीन तीन श्री मंदिरजीमें भेट करे चर्तुसंघको चार प्रकारका दान देवे। शास्त्र लिखाकर बांटे। इस प्रकार रानीने व्रतकी विधि सुनकर विधिपूर्वक इसे धारण किया। पश्चात् आयुके अन्तमें समाधिमरण
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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