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________________ श्री त्रिलोक तीज व्रत कथा [41 / ******************************** (5 श्री त्रिलोक तीज व्रत कथा) वन्दों श्री जिनदेव पद, वन्दूं गुरु चरणार। वन्दूं माता सरस्वती, कथा कहूं हितकार॥ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र संबंधी कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामक एक अति रमणीक नगर है। वहांका राजा कामदुक और रानी कमललोचना थी, और उनके विशाखदत्त नामका पुत्र था। उस राजाके वरदत्त नामका एक मंत्री था, जिसकी विशालाक्षी पत्नीसे विजयसुन्दरी नामक एक कन्या बहुत सुन्दर थी, जिसका पाणिग्रहण राजपुत्र विशाखदत्तने किया था। कितनेक दिन बाद राजा कामदुककी मृत्यु होने पर युवराज विशाखदत्त राजा हुआ। एक दिन राजा अपने पिताके वियोगसे व्याकुल हो उदास बैठा था कि उसी समय उस ओर विहार करते हुए श्री नमस्कार करके उच्चासन दिया, तब मुनिश्रीने धर्मवृद्धि कह आशीष दी और इस प्रकार संबोधन करने लगे-- __ राजा! सुनो, यह काल (मृत्यु), सुर (देव), नर पशु आदि किसोको भी नहीं छोडता हैं। संसारमें जो उत्पन्न होता है सो नियमसे नाश होता है। ऐसी विनाशीक वस्तुके संयोग वियोगमें हर्ष विषाद ही क्या? यह तो पक्षियोंके समान रैन (रात्री) बसेरा है। जहाजमें देश देशांतरके अनेक लोग आ मिलते हैं, परंतु अवधि पूरी होने पर सब अपने२ देशको चले जाते हैं। __इसी प्रकार ये जीव एक कुल (वंश-परिवार) में अनेक गतियोंसे आ आकर एकत्रित होते हैं और अपनी अपनी आयु पूर्ण कर संचित कर्मानुसार यथायोग्य गतियोंमें चले जाते हैं। किसीकी
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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