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________________ 40] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** सुनकर भाव सहित धारण किया और भावना भाई। सो अन्तसमय समाधिमरण कर अच्युतस्वर्गमें इन्द्र इन्द्राणी हुए। वहांसे वह रानीका जीव (इन्द्राणी) चयकर यह तेरे श्रुतशालिनी नामकी कन्या हुई। इस प्रकार गुरुमुखसे भवांतर सुनकर उस कन्याने पुन: श्रुतस्कंध व्रत धारण किया और चारित्रके प्रभावसे विषयकषायों स्त्रीलिंगको छेदकर इन्द्रपद प्राप्त किया और वहांके अनुपम सुख भोगकर अपरविदेह कुमुदवती देशके अशोकपुरमें पद्मनाभ राजाकी पट्टरानी जितपद्माके गर्भसे नयन्धर नाम तीर्थंकर हुआ। साथ ही चक्रवर्ती और कामदेवपदको भी सुशोभित किया। बहुत समय तक नीतिपूर्वक प्रजाका पालन किया। पश्चात् एक दिन इन्द्रधनुषको आकाशमें विलीन होते देख वैराग्य उत्पन्न हुआ। सो अनित्य, अशरण, संसार, एकत्य, अन्यत्य, अशुचित्य, आश्रय, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म वैराग्यको दृढ़ करनेवाली इन बारह भावनाओंका चिंतवन कर दीक्षा ग्रहण की, और कितनेक कालतक उत्कृष्ट संयम पालकर शुक्लध्यानके योगसे केवलज्ञान प्राप्त किया, तब देवोंने समवशरण की रचना की। इस प्रकार अनेक देशोंमें विहार करके भव्य जीवोंको वस्तुस्वरुपका उपदेश दिया और आयुके अन्य समयमें अघाति कर्मोको नाश करके अविनाशी सिद्धपद प्राप्त किया। इस प्रकार और भी जो नरनारी प्राप्त होवेंगे। श्रुतशालिनी कन्या कियो, श्रुतस्कन्ध व्रत सार। 'दीप' कर्म सब नाश कर, लहो मोक्ष सुखकार॥
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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