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________________ श्री षोडशकारण व्रत कथा [35.. ******************************** ऐसे ऐसे समयोंमें येन केन प्रकारेण समस्त जीवोंपर सत्य (जिन) धर्मका प्रभाव प्रगट कर देना, सो मार्गप्रभावना हैं। और यह प्रभावना जिन धर्मके उपदेशोंके प्रचार करने शास्त्रोंके प्रकाशन व प्रसारणसे, शास्त्रोंके अध्ययन वा अध्यापन करने करानेसे, विद्वानोंकी सभायें कराने, अपने आप सदाचरण पालने लोकोपकारी कार्य करने, दान देने, संघ निकालने व विद्यामंदिरोंकी स्थापना व प्रतिष्ठादि करने, सत्य व्यवहार करने संयम व तपादिक करनेसे होती हैं, ऐसा समझकर यथाशक्ति प्रभावनोत्पादक कर्मोमें प्रवर्तना सो मार्गप्रभावना नामकी भावना है। __ (16) संसारमें रहते हुए जीवोंकी परस्पर सहायता व उपकारकी आवश्यकता रहती हैं, ऐसी अवस्थामें यदि निष्कपट भावसे अथवा प्रेमपूर्वक सहायता न की जाय, तो परस्पर यथार्थ लाभ पहुँचना दुर्लभ ही है। इतना ही नहीं किन्तु परस्परके विरोधसे अनेकानेक हानियां व दुःख होना सम्भव है, जैसे हो भी रहे हैं। इसलिये यह परमावश्यक कर्तव्य हैं कि प्राणी परस्पर (गायका अपने बछडे पर जैसा कि निष्कपट और प्रगाढ़ प्रेम होता है वैसा ही) निष्कपट प्रेम करें। विशेषकर साधर्मियोंके संग तो कृत्रिम प्रेम कभी न करे। ऐसा विचार कर जो साधर्मियों तथा प्राणी मात्रसे अपना निष्कपट व्यवहार रखते हैं उसे प्रवचन-वात्सल्य नामकी भावना कहते हैं। इन 16 भावनाओंको यदि केवली श्रुतकेवलीके पादमूलके निकट अन्तःकरणसे चिन्तवन की जायें तथा तदनुसार प्रवर्तन किया जाय तो इनका फल तीर्थंकर नामकर्मके आश्रवका कारण हैं आचार्य महाराज इस प्रकार सोलह भावनाओंका स्वरूप कहकर अब व्रतकी विधि कहते हैं -
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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